रविवार, 31 जनवरी 2016

आरती - ॐ जय जगदीश हरे

ॐ जय जगदीश हरे
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे .
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे ..
जो ध्यावे फल पावे, दुख बिनसे मन का .
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ..
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी .
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी ..
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी .
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी ..
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता .
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता ..
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति .
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति ..
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे .
करुणा हस्त बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे ..
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा .
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा ..

राधे कृष्णा की ज्योति अलौकिक

राधे कृष्णा की ज्योति अलौकिक
तीनो लोक में छाये रही है
भक्ति विवश एक प्रेम पुजारिन
फिर भी दीप जलाये रही है
कृष्णा को गोकुल से राधे को
कृष्णा को गोकुल से राधे को

बरसाने से बुलाये रही है
दोनों करो स्वीकार कृपा कर
जोगन आरती गए रही है
जोगन आरती गए रही है

भोर भये ती सांज ढले तक
सेवा कौन इतने महमारो
स्नान कराये वो वस्त्र ओढ़ाए
वो भोग लगाये वो लगत प्यारो
कबसे निहारत आपकी और
कबसे निहारत आपकी और

की आप हमारी और निहारो
राधे कृष्णा हमारे धाम को जनि वृन्दावन धाम पधारो
राधे कृष्णा हमारे धाम को जनि वृन्दावन धाम पधारो

श्री गणेश आरति

॥श्री गणेश आरति॥

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा.
माता जाकी पारवती पिता महादेवा॥ जय गणेश.....

एकदन्त दयावन्त चारभुजाधारी
माथे पर तिलक सोहे मूसे की सवारी॥ जय गणेश.....

पान चढ़े फल चढ़े और चढ़े मेवा
लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा॥ जय गणेश.....

अंधे को आँख देत कोढ़िन को काया
बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया॥ जय गणेश.....

' सूर' श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा॥ जय गणेश.....

शनिवार, 30 जनवरी 2016

संकष्टहरणं गणेशाष्टकम्‌

॥ संकष्टहरणं गणेशाष्टकम्‌ ॥

ॐ अस्य श्री संकष्टहरणस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीमहागणपतिर्देवता, संकष्टहरणार्थ जपे विनियोगः।

ॐ ॐ ॐ काररूपम्‌ त्र्यहमिति च परम्‌ यत्स्वरूपम्‌ तुरीयम्‌
त्रैगुण्यातीतनीलं कलयति मनसस्तेज-सिन्दूर-मूर्तिम्‌।
योगीन्द्रैर्ब्रह्मरन्ध्रैः सकल-गुणमयं श्रीहरेन्द्रेणसंगं
गं गं गं गं गणेशं गजमुखमभितो व्यापकं चिन्तयन्ति ॥१॥

वं वं वं विघ्नराजं भजति निजभुजे दक्षिणे न्यस्तशुण्डं
क्रं क्रं क्रं क्रोधमुद्रा-दलित-रिपुबलं कल्पवृक्षस्य मूले।
दं दं दं दन्तमेकं दधति मुनिमुखं कामधेन्वा निषेव्यम्‌
धं धं धं धारयन्तं धनदमतिघियं सिद्धि-बुद्धि-द्वितीयम्‌ ॥२॥

तुं तुं तुं तुंगरूपं गगनपथि गतं व्याप्नुवन्तं दिगन्तान्‌
क्लीं क्लीं क्लींकारनाथं गलितमदमिलल्लोल-मत्तालिमालम्‌।
ह्रीं ह्रीं ह्रींकारपिंगं सकलमुनिवर-ध्येयमुण्डं च शुण्डं
श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रयन्तं निखिल-निधिकुलं नौमि हेरम्बबिम्बम्‌ ॥३॥

लौं लौं लौंकारमाद्यं प्रणवमिव पदं मन्त्रमुक्तावलीनाम्‌
शुद्धं विघ्नेशबीजं शशिकरसदृशं योगिनां ध्यानगम्यम्‌।
डं डं डं डामरूपं दलितभवभयं सूर्यकोटिप्रकाशम्‌
यं यं यं यज्ञनाथं जपति मुनिवरो बाह्यमभ्यन्तरं च ॥४॥

हुं हुं हुं हेमवर्णं श्रुति-गणितगुणं शूर्पकणं कृपालुं
ध्येयं सूर्यस्य बिम्बं ह्युरसि च विलसत्‌ सर्पयज्ञोपवीतम्‌।
स्वाहाहुंफट् नमोन्तैष्ठ-ठठठ-सहितैः पल्लवैः सेव्यमानम्‌
मन्त्राणां सप्तकोटि-प्रगुणित-महिमाधारमोशं प्रपद्ये ॥५॥

पूर्वं पीठं त्रिकोणं तदुपरि रुचिरं षट्कपत्रं पवित्रम्‌
यस्योर्ध्वं शुद्धरेखा वसुदलकमलं वो स्वतेजश्चतुस्रम्‌।
मध्ये हुंकारबीजं तदनु भगवतः स्वांगषट्कं षडस्रे
अष्टौ शक्तीश्च सिद्धीर्बहुलगणपतिर्विष्टरश्चाष्टकं च ॥६॥

धर्माद्यष्टौ प्रसिद्धा दशदिशि विदिता वा ध्वजाल्यः कपालं
तस्य क्षेत्रादिनाथं मुनिकुलमखिलं मन्त्रमुद्रामहेशम्‌।
एवं यो भक्तियुक्तो जपति गणपतिं पुष्प-धूपा-
क्षताद्यैर्नैवेद्यैर्मोदकानां स्तुतियुत-विलसद्-गीतवादित्र-नादैः ॥७॥

राजानस्तस्य भृत्या इव युवतिकुलं दासवत्‌सर्वदास्ते
लक्ष्मीः सर्वांगयुक्ता श्रयति च सदनं किंकराः सर्वलोकाः।
पुत्राः पुत्र्यः पवित्रा रणभूवि विजयी द्यूतवादेपि वीरो
यस्येशो विघ्नराजो निवसति हृदये भक्तिभाग्यस्य रुद्रः ॥८॥

॥ इति श्री संकष्टहरणं गणेशाष्टकं सम्पूर्णम्‌ ॥

संकटनाशन गणेश स्तोत्रम्

संकटनाशन गणेश स्तोत्रम्
Sankat Nashak Ganesh Strotram

संकटनाशन गणेश स्तोत्रम् का प्रति दिन पाठ करने से समस्त प्रकार के संकटोका नाश होता है, श्री गणेशजी कि कृपा एवं सुख समृद्धि कि प्राप्त होती है।


वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ ।
निर्विघ्नम् कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

विघ्नेश्वराय वरदाय सूरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञ विभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमोनमस्ते ॥

॥संकटनाशन गणेशस्तोत्रम्॥

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुंत्र विनायकम्
भक्तावासं स्मरे नित्यं आयुकामार्थसिद्धये ॥ १ ॥

प्रथमं वक्रतुंडं च एकदंतं द्वितियकम्
तृतीयं कृष्णपिंगाक्षं गजवकत्रं चतुर्थकम् ॥ २ ॥

लंबोदरं पंचमं च षष्टमं विकटमेव च
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाअष्टकम् ॥ ३ ॥

नवं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम्
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥ ४ ॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर:
न च विघ्नभयं तस्य सर्व सिद्धि करं प्रभो ॥ ५ ॥

विद्यार्थि लभते विद्यां धनार्थि लभते धनम्
पुत्रार्थि लभते पुत्रांमोक्षार्थि लभते गतिम् ॥ ६ ॥

जपेत्गणपतिस्तोत्रं षडभिमासै: फलं लभेत
संवतसरेणसिद्धिं च लभते नात्रसंशयः ॥ ७ ॥

अष्टभ्योब्राह्मणोभ्यस्य लिखित्वा य: समर्पयेत्
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥ ८ ॥

॥ इतिश्री नारदपुराणे ‘संकटनाशन गणेशस्तोत्रम्’ संपूर्णम् ॥

श्री हनुमत् स्तवन

||  श्री हनुमत् स्तवन ||

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥१॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्॥२॥

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥३॥

गोष्पदीकृतवारीशं मशकीकृतराक्षसम्।
रामायणमहामालारत्नं वन्देऽनिलात्मजम्॥४॥

अञ्जनानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम्।
कपीशमक्षहन्तारं वन्दे लङ्काभयङ्करम्॥५॥

महाव्याकरणाम्भोधिमन्थमानसमन्दरम्।
कवयन्तं रामकीर्त्या हनुमन्तमुपास्महे॥६॥

उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम्॥७॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥८॥

आञ्जनेयमतिपाटलाननं काञ्चनाद्रिकमनीयविग्रहम्।
पारिजाततरुमूलवासिनं भावयामि पवमाननन्दनम्॥९॥

यत्र-यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र-तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्।
बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्॥१०॥

हनुमानजी की आरती

||  हनुमान आरती ||

आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की॥१॥
जाके बल से गिरिवर काँपै। रोग-दोष जाके निकट न झाँपै॥२॥
अंजनि पुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई॥३॥
दे बीरा रघुनाथ पठाये। लंका जारि सीय सुधि लाये॥४॥
लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥५॥
लंका जारि असुर सँहारे। सियारामजी के काज सँवारे॥६॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि सजीवन प्रान उबारे॥७॥
पैठि पताल तोरि जम-कारे। अहिरावन की भुजा उखारे॥८॥
बायें भुजा असुर दल मारे। दहिने भुजा संतजन तारे॥९॥
सुर नर मुनि आरती उतारे। जै जै जै हनुमान उचारे॥१०॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरति करत अंजना माई॥११॥
जो हनुमान जी की आरती गावै। बसि बैकुण्ठ परमपद पावै॥१२॥

||  इति श्री हनुमान चालीसा सम्पूर्ण ||

संकट मोचन हनुमानाष्टक

||  संकट मोचन हनुमानाष्टक ||

बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो।
देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥१॥

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो।
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥२॥

अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो।
हेरि थके तट सिंधु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥३॥

रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो।
चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥४॥

बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो।
आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥५॥

रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो।
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥६॥

बंधु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो।
जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥७॥

काज कियो बड़ देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो।
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कुछ संकट होय हमारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥८॥

||  दोहा ||
लाल देह लाली लसे अरू धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन जय जय जय कपि सूर॥

||  इति संकटमोचन हनुमानाष्टक सम्पूर्ण ||

बजरंग बाण Bajarang Baan


॥ बजरंग बाण ॥

॥ दोहा ॥
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥

॥ चौपाई ॥
जय हनुमंत संत हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥
जन के काज बिलंब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै॥

जैसे कूदि सिंधु महिपारा । सुरसा बदन पैठि बिस्तारा॥
आगे जाय लंकिनी रोका । मारेहु लात गई सुरलोका॥

जाय बिभीषन को सुख दीन्हा। सीता निरखि परमपद लीन्हा॥
बाग उजारि सिंधु महँ बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा॥

अक्षय कुमार मारि संहारा । लूम लपेटि लंक को जारा॥
लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर नभ भई॥

अब बिलंब केहि कारन स्वामी। कृपा करहु उर अंतरयामी॥
जय जय लखन प्रान के दाता। आतुर ह्वै दुख करहु निपाता॥

जै हनुमान जयति बल-सागर। सुर-समूह-समरथ भट-नागर॥
ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले। बैरिहि मारु बज्र की कीले॥

ॐ ह्नीं ह्नीं ह्नीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा॥
जय अंजनि कुमार बलवंता । शंकरसुवन बीर हनुमंता॥

बदन कराल काल-कुल-घालक। राम सहाय सदा प्रतिपालक॥
भूत, प्रेत, पिसाच निसाचर । अगिन बेताल काल मारी मर॥

इन्हें मारु, तोहि सपथ राम की। राखु नाथ मरजाद नाम की॥
सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै। राम दूत धरु मारु धाइ कै॥

जय जय जय हनुमंत अगाधा। दुख पावत जन केहि अपराधा॥
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत कछु दास तुम्हारा॥

बन उपबन मग गिरि गृह माहीं। तुम्हरे बल हौं डरपत नाहीं॥
जनकसुता हरि दास कहावौ। ताकी सपथ बिलंब न लावौ॥

जै जै जै धुनि होत अकासा। सुमिरत होय दुसह दुख नासा॥
चरन पकरि, कर जोरि मनावौं। यहि औसर अब केहि गोहरावौं॥

उठु, उठु, चलु, तोहि राम दुहाई। पायँ परौं, कर जोरि मनाई॥
ॐ चं चं चं चं चपल चलंता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता॥

ॐ हं हं हाँक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल-दल॥
अपने जन को तुरत उबारौ। सुमिरत होय आनंद हमारौ॥

यह बजरंग-बाण जेहि मारै। ताहि कहौ फिरि कवन उबारै॥
पाठ करै बजरंग-बाण की। हनुमत रक्षा करै प्रान की॥

यह बजरंग बाण जो जापैं। तासों भूत-प्रेत सब कापैं॥
धूप देय जो जपै हमेसा। ताके तन नहिं रहै कलेसा॥

॥ दोहा ॥

उर प्रतीति दृढ़, सरन ह्वै, पाठ करै धरि ध्यान।
बाधा सब हर, करैं सब काम सफल हनुमान॥

कुछ संस्करणों में उपरोक्त दोहा "उर प्रतीति दृढ़, सरन ह्वै"
के स्थान पर निम्न प्रकार से उल्लेखित किया गया है।

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान॥

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

|| हनुमान चालीसा ||


||  हनुमान चालीसा ||

||  दोहा ||
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

||  चौपाई ||

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥ ॥१॥

रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥ ॥२॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥ ॥३॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥ ॥४॥

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
काँधे मूँज जनेऊ साजै।। ॥५॥

संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन॥ ॥६॥

विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥ ॥७॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥ ॥८॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥ ॥९॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥ ॥१०॥

लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥ ॥११॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥ ॥१२॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥ ॥१३॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥ ॥१४॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥ ॥१५॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥ ॥१६॥

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥ ॥१७॥

जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥ ॥१८॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥ ॥१९॥

दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥ ॥२०॥

राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥ ॥२१॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना॥ ॥२२॥

आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै॥ ॥२३॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै॥ ॥२४॥

नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥ ॥२५॥

संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥ ॥२६॥

सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा॥ ॥२७॥

और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै॥ ॥२८॥

चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥ ॥२९॥

साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥ ॥३०॥

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥ ॥३१॥

राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥ ॥३२॥

तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै॥ ॥३३॥

अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥ ॥३४॥

और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥ ॥३५॥

संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥ ॥३६॥

जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥ ॥३७॥

जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥ ॥३८॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ ॥३९॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥ ॥४०॥

||  दोहा ||

पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

|  इति श्री हनुमान चालीसा सम्पूर्ण |

कोऊ न संकर सम प्रिय मोरे ! शंकर सरिस न कोऊ प्रिय मोरें !

कर्पूर गौरम करुणावतारं , संसार सारं भुजगेन्द्र हारं ! 
सदा वसंतं हृदयार विन्दे , भवं भवानी सहितं नमामि !! 
भवानी शंकरौ वन्दे , श्रृद्धा विश्वास रुपिणौ !
याभ्यां विना न पश्च्यन्ति , सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम !! 
गुरु पितु मातु महेश भवानी ! प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी !! 
सेवक स्वामी सखा सियपी के ! हित निरुपधि सब विधि तुलसी के !! 
वन्दौ बोध मयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणौ ! 
यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रः सर्वत्र वन्ध्यते !! 

*** ॐ नम: शिवाय ***

 

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

अर्धनारी नटेश्वर स्तोत्रम

अर्धनारीनटेश्वरस्तोत्रम ।

चांपेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय ।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवयै च नमः शिवाय ॥१॥

कस्तूरिकाकुङ्कुमचर्चितायै चितारजःपुञ्जविचर्चिताय ।
कॄतस्मरायै विकॄतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥२॥

चलत्क्वणत्कङ्कणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणिनूपुराय ।
हेमाङ्गदायै भुजगाङ्गादाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥३॥

विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपङ्केरुहलोचनाय ।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय  नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥४॥

मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालाङ्कितकन्धराय ।
दिव्यांबरायै च दिगंबराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।५॥

अंभोधरश्यामळकुन्तळायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय ।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥६॥

प्रपञ्चसृष्टयुन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय ।
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥७॥

प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय ।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥८॥

एतत्पठेदष्टकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी ।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात्सदा तस्य समस्तसिद्धिः ॥९॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्य
श्रीमच्छङ्करभगवत्प्रणीतमर्धनारीनटेश्वरस्तोत्रं संपूर्णम ॥

रावणकृतं शिवताण्डव स्तोत्रम

रावणकृतं शिवताण्डव स्तोत्रम ।

जटाटवी गलज्जल प्रवाहपावित स्थलॆ
गलॆ वलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकां ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड डमर्वयं
चकार चण्टताण्डवं तनॊतु न: शिव: शिवं ॥१॥

जटाकटाह सम्भ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी
विलोलवीचि वल्लरी विराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद धगज्ज्वल ललाट पटॅ पावके
किशोर चन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥

धराधरेन्द्र नन्दिनी विलासबन्धु बन्धुर
स्फुरत दिगन्तसन्तति प्रमोदमानमानसे ।
कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि
क्वचित चिदंबरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥

जटाभुजङ्ग पिङ्गल स्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्ब कुङ्कुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदान्ध सिन्धुर स्फुरत्त्वगुत्तरीय मेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥४॥

सहस्र लोचन प्रमृत्य शेषलेख शेखर
प्रसून धूलि धोरणी विधुसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धु शेखरः ॥५॥

ललाटचत्वर ज्वलद धनञ्जयस्फुलिङ्गभानिपीत
पञ्चसायकं नमन्निलिंपनायकम
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि संपदे
शिरो जटालमस्तु नः ॥६॥

कराल भाल पट~इका धगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाधरीकृत प्रचण्ड पञ्चसायके ।
धराधरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्र पत्रक
प्रकल्पनैक शिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥७॥

नवीनमेघमण्डली निरुद्ध दुर्धरस्फुरत
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्ध बन्धुकन्धरः
निलिंपनिर्झरी धर-स्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥८॥

प्रफुल्लनील पङ्कज प्रपञ्च कालिमच्छटा-
विडंबि कण्ठ कन्धरा रुचिप्रबद्ध कन्धरम ।
स्वरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥९॥

अगर्व सर्वमङ्गला कलाकदंबमञ्जरी
रसप्रवाह माधुरी विजॄम्भणामधुव्रतम ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥१०॥

जयत्वदभ्रबिभ्रम भ्रमद्भुजङ्गमस्फुरद
धगद्धगाद्विनिर्गमत्कराल भालहव्यवाट ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्ग तुङ्गमङ्गल
ध्वनि क्रम प्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥

दृषद्विचित्र तल्पयोर्भुजङ्ग मौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्ष पक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामही महेन्द्रयोः
समप्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥ १२॥

कदा निलिंप निर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन-
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन ।
विमुक्तलोललोचना ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुखरन कदा सुखी भवाम्यहम ॥ १३॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम ।
हरे गुरौ स भक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां तु शङ्करस्य चिन्तनम ॥ १४॥

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शंभुपूजनमिदं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शंभुः ॥ १५॥

इति श्रीरावणविरचितं शिवताण्डवस्तोत्रं संपूर्णम ॥