सोमवार, 26 सितंबर 2016

जानिये नवरात्रि में क्‍यूं की जाती है कन्याओं की पूजा

नवरात्रि नौ रातों की धूमधाम होती है जो दुर्गा माता के नौ रूपों को समर्पित होती है। इन नौ रातों में, शक्ति के नौ रूपों की पूजा होती है। संस्कृत में नवरात्री का शाब्दिक अर्थ होता है नौ रातें।

जानिये नवरात्रि में क्‍यूं की जाती है कन्याओं की पूजा

नवरात्रि का हर एक दिन माँ दुर्गा के एक रूप को समर्पित होता है और इस दिन श्रद्धालुओं द्वारा इनकी पूजा होती है।गुजरात में नवरात्रि में नौ रातों का जश्न, मस्ती और नाच गान होता है। गुजरात में श्रद्धालु रात भर नाच गान करते हैं और पूरी रात डांडिया या गरबा खेला जाता है।

नवरात्रि उपवास के दौरान क्‍यूं वर्जित होता है अन्‍न का सेवन?

देश के दूसरे कोनों में श्रद्धालु इन नौ दिन उपवास रखते हैं और माँ दुर्गा के अनेक रूपों को अलग अलग खाने की सामग्री चढ़ाई जाती है। इन नौ दिनों का एक श्रद्धालु के लिए विशेष महत्व होता है जिसका वर्णन नीचे किया गया है।

पहला दिन: प्रथम या नवरात्रि का पहला दिन माँ दुर्गा के पहले अवतार को समर्पित होता है। इस दिन शैलपुत्री माता को श्रद्धालु पूजते हैं। इस अवतार में वह एक बच्ची और पहाड़ की बेटी की तरह पूजी जाती हैं। इस दिन श्रद्धालु पीला वस्त्र पहनते हैं और माता को घी चढ़ाते हैं।

दूसरा दिन: दूसरे दिन माँ दुर्गा की पूजा ब्रह्मचारिणी देवी के रूप में होती है। द्वितीया या दूसरे दिन श्रद्धालु हरा वस्त्र पहनते हैं और माँ को चीनी का भोग लगाते हैं।

तीसरा दिन: तृतीया या तीसरा दिन देवी चंद्रघंटा को समर्पित होता है। ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप की पूजा करने से आपके सारे कष्ट मिट जाते हैं और आपकी मनोकामना पूरी होती है। इस दिन श्रद्धालु भूरे रंग का वस्त्र पहनते हैं और देवी को दूध या खीर का भोग चढ़ता है।

चौथा दिन: चौथा दिन या चतुर्थी देवी कुष्मांडा को समर्पित होता है। ऐसा मानते हैं कि देवी के इस रूप की पूजा करने से और व्रत रखने से श्रद्धालु के सभी कष्ट और रोग दूर होते हैं। इस दिन श्रद्धालु नारंगी वस्त्र पहनते हैं और माँ कुष्मांडा को मालपुआ का भोग लगाते हैं।

पांचवा दिन: पंचमी या पांचवा दिन स्कन्दमाता देवी को समर्पित होता है। ऐसा मानते हैं कि देवी के इस रूप की पूजा करने से श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूरी होती है। पंचमी के दिन उजला वस्त्र पहनते हैं और देवी को केले का भोग चढ़ता है।

छठा दिन: षष्ठी या छठे दिन देवी कात्यायिनी की पूजा होती है। इस दिन श्रद्धालु लाल कपडे पहनते हैं और देवी को खुश करने के लिए शहद का भोग चढ़ाते हैं।

सातवां दिन: सप्तमी या सांतवा दिन देवी कालरात्रि को समर्पित होता है। इस अवतार में देवी अपने श्रद्धालुओं को किसी भी बुराई से बचाती हैं और खुशियां देती हैं। इस दिन श्रद्धालु नीला वस्त्र पहनते हैं और देवी को गुड़ का भोग चढ़ाते हैं। कुछ लोग इस दिन ब्राह्मणों को दक्षिणा भी देते हैं।

आंठवा दिन: आंठवा दिन या अष्टमी देवी महागौरी को समर्पित होता है। ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप की पूजा करने से श्रद्धालुओं के सारे पाप धुल जाते हैं। देवी को हरी साड़ी पहने दिखाते हैं। इस दिन श्रद्धालु गुलाबी रंग पहनते हैं और देवी को नारियल चढ़ाते हैं।
नवां दिन: नवां दिन या नवमी देवी सिद्धिदात्री को समर्पित होता है। देवी के इस रूप की पूजा करने से श्रद्धालुओं की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस दिन श्रद्धालु बैंगनी रंग पहनते हैं और देवी को तिल का भोग चढ़ा

यज्ञ एवं शोध

यज्ञ अथवा अग्निहोत्र आज केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रह गया है। यह शोध का विषय भी बन गया है। ‘अमेरिका’ में यज्ञ पर शोध हुए हैं और प्रायोगिक परीक्षणों से पाया गया है कि वृष्टि, जल एवं वायु की शुद्धि, पर्यावरण संतुलन एवं रोग निवारण में यज्ञ की अहम भूमिका है।

चेचक के टीके के आविष्कारक डॉ. हैफकिन का कथन है ‘घी जलाने से रोग के कीटाणु मर जाते हैं।’ फ्रांस के वैज्ञानिक प्रो. ट्रिलबिर्ट कहते हैं, “जली हुई शक्कर में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति हैं। इससे टी. बी., चेचक, हैजा आदि बीमारियां तुरंत नष्ट हो जाती हैं।” अंग्रेजी शासनकाल में मद्रास के सेनिटरी कमिश्नर डॉ. कर्नल किंग आई.एम.एस. ने कहा, “घी और चावल में केसर मिलाकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।”

आज अत्यधिक धुम्रपान, अंधाधुंद पेट्रोलियम पदार्थों के प्रयोग से बढ़ता प्रदूषण तथा विषैली गैसें चिंता का विषय, जिसका प्रतिकार यज्ञ है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश ने भी कहा है, “यज्ञ में बहुत स्वास्थ्यप्रद उपयोगी ओजोन तथा फारमेल्डिहाइड गैसें भी उत्पन्न होती हैं। ओजोन ऑक्सीजन से भी ज्यादा लाभकारी एवं स्वास्थ्यवर्द्धक है। यह ठोस रूप में प्रायः समुद्र के किनारे पाई जाती है, जिसे हम अपने घर में ही यज्ञ से पा सकते हैं।”

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वैज्ञानिक आधार पर शोध करके सामग्री व समिधाओं का चयन किया था। जैसे-बड़, पीपल, आम, बिल्व, पलाश, शमी, गूलर, अशोक, पारिजात, आंवला व मौलश्री वृक्षों के समिधाओं का घी सहित यज्ञ-हवन में विधान किया था, जो आज विज्ञान सम्मत है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य पंचभूतों की शुद्धि है, जो हमारे पर्यावरण का अंग हैं। यज्ञ का वैदिक उद्देश्य भी पर्यावरण शुद्धि एवं संतुलन है। यज्ञ-विज्ञान का नियम है कि जब कोई पदार्थ अग्नि में डाला जाता है तो अग्नि उस पदार्थ के स्थूल रूप को तोड़कर सूक्ष्म बना देती है। इसलिए यजुर्वेद में अग्नि को ‘धूरसि’ कहा जाता है।

महर्षियों ने इसका अर्थ दिया है कि भौतिक अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता उतनी ही बढ़ जाती है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। जैसे अणु से सूक्ष्म परमाणु और परमाणु से सूक्ष्म इलेक्ट्रान होता है। अतः ये क्रमानुसार एक-दूसरे से ज्यादा क्रियाशील एवं गतिशील है। यज्ञ में यह सिद्धांत एक साथ काम करते हैं। यज्ञ में डाल गई समिधा अग्नि द्वारा विघटति होकर सूक्ष्म बनती है, वहीं दूसरी तरफ वही सूक्ष्म पदार्थ अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होकर विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।

एक चम्मच घी एक आदमी खाता है तो उसकी लाभ-हानि सिर्फ खाने वाले आदमी तक ही सीमित है, परंतु यज्ञ कुंड में एक चम्मच घी अनेक व्यक्तियों को लाभ पहुंचाता है। जिस घर में हवन होता है, यज्ञाग्नि के प्रभाव से वहां की वायु गर्म होकर हल्की होकर फैलने लगती है और उस खाली स्थान में यज्ञ से उत्पन्न शुद्ध वायु वहां पहुंच जाती है। इसमें विसरणशीलता का वैज्ञानिक नियम काम करता है। इसलिए हम देखते हैं कि किसी पर या कोई स्थान, जहां यज्ञ हुआ रहता है, वहां कई दिनों तक समिधा की खुश्बू विद्यमान रहती है। प्रदूषण आज की विकट समस्या है। इसका कारण एक तो हमारी भोगवती प्रवृत्ति और दूसरा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी है। आज का बढ़ता तापमान, औद्योगीकरण, वृक्षों की कटाई, पॉलीथीन का उपयोग, जल, वायु, मृदा प्रदूषण चरमावस्था में है, जिसके कारण प्राणियों की रक्षा के लिए संरचित हमारे रक्षा कवच, ओजोन परत में छेद होने लगा है।

उद्योगों, कल-कारखानों से गंदगी निकलकर पृथ्वी को दूषित कर रहे हैं बेतरतीब वाहनों से निकलता धुआं, अर्थात कार्बन मोनो-ऑक्साइड गैस से आंखों में जनल, सिर दर्द, अस्थमा, टी.बी. आदि से लोग परेशान हैं। ऐसा लगता है संपूर्ण जैवमंडल विनष्ट हो रहा है। ‘ओ पूर्णतः दः पूर्णमिदं’ को आधुनिक स्वार्थी, भोगलिप्सा में लिप्त मानव अनसुना करके अपने आपकों ही मारने पर तुला है। ओजोन परत में हुए छेद से सूर्य की प्रचंड गर्मी, विध्वंसकारी पराबैंगनी किरणों के रूप में चर्म रोग, कैंसर, आंखों से अंधा होना आदि का संवाहक बन गई है। ऐसे में इस समस्या के समाधान हेतु प्रयासों के साथ क्या हम एक छोटा-सा प्रयास ‘यज्ञ’ के रूप में नहीं कर सकते?

आइए आज से ही हम सब सामूहिक यज्ञ का संकल्प लें।

बुधवार, 21 सितंबर 2016

जितिया पावैन

एहि वर्ष मिथला में जितिया पावैन 23 सितंबर
2016 शुक्र दिन मनाओल जायत ।।
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      संतान दीर्घायुक कामना सौं आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमीक अत्यन्त कठिन आ उच्च फल दैइवला जितिया पावैन मिथिला में अति लोकप्रिय आ महत्वपूर्ण अछि।
           अपन मिथिला में इ व्रत केनिहारि सधवा लोकनि एक दिन पूर्व मरूआ रोटी आ माछ खाई छथि, "जिया जीवछ बढई छै"।विधवा लोकनि अरवा-अरवैन खाई छथि।पितरैन के निमंत्रण दय जिनका जते जे उपलब्ध पवित्र सौं भोजन करबै छथि आ तेल सिनूर लगा जैंत-पीच के सेवा सुश्रुखा कय ससम्मान विदा करै छथि , जौं कनियाँ-बहुरिया निमंत्रित रहै छनि त थारी बाटी में साजि पारस पठा दै छथि।
                   जाहि मैथिल बेटीक एहिसाल विवाह भेल रहै छैन सासुर सौं माछ मरूआ ओठगनक लेल दही-चूड़ा आ श्रृंगारक समान चूड़ी लहठी सारी आदिक भार आबई छनि,सौंसे टोल समाज सोलहो श्रृंगार कय माछ आ मरूआ रोटी अंगने अंगने छमकि छमैक के परसै छथि कहल जाई छै अहिवात सुरक्षित रहै छै।
                 मिथिला में व्रत सौं पूर्व जौं अष्टमी तिथि नै परल रहै छै त भोरूकवा में चूड़ा दही चीनी अम्मट अचार नून मिरचाई जिनका जतेक स्वाद साजो सामान लय ओठगन करै छथि किएक त लगभग 36 घंटा निर्जला उपास रहे परै छनि धियापुता सब त ओठगनक नाम सुनि आनंदविभोर भय जाई छथि आ माँ के खूब आगू पाछू करै छथि जे भोरूकवा में ओठगन करब किएक नै हुए भोरूकवा में दही चूड़ा खाई वला एकटा येह अद्वितीय पावैन अछि।
पुरूष लोकनि स्त्री के खौंझबै लेल इहो कहै छथि
          
          "जितिया पावैन बड़ भारी
           धियापुता के ठोकि सुतेलनि
            अपने लेलैन भरि थारी"

किन्तु जे माँ ओहि संतानक लेल एतेक कठिन व्रत रखै छथि ओ कहूँ ओहि संतान के ओठगन काल नहिं उठबथिन जाहि बेर ओठगनक समय अष्टमी परियो जाई छै त अपने त नहिंये खाई छथि धियापुता के अवश्य ओठगन करबै छथि किएक त मैथिल स्त्री पति संतान परिवारक लेल सदा अपन  बलिदान बलिवेदी पर रखने रहै छथि।
                 अष्टमी जाहि दिन परै छै मैथिल व्रती स्त्री जाहि ठाम स्नान करै छथि इनार पोखैर नदी वा कल पर पूब मुँहे ठार भय आँजुर में जल लय सूर्यदेव के इ मंत्र पढैत अर्घ्य दै छथि-
           "नम: एषोर्घ: सूर्यनारायणाय नम:"
एहि तिथि में विशेष योग भेला सौं "षडजितिया" सेहो लगै छै अहिदिन सौं नवका व्रती व्रतक आरंभ  सूर्यदेव के अर्घ्य दऽ हथ में तेकुशा तील जल लऽ इ मंत्र पढि संकल्पित होई छथि-

"नमो अद्य आरभ्य षोडष वर्षाणि यावत्   प्रतिवर्षिया आश्विन कृष्णाष्टम्यां प्रदोषे जीमूतवाहनस्य व्रत-पूजा संकल्प अहं करिष्यामि"
इ व्रत खंडित नै हेबाक चाही।

अर्घ्योपरांत दिनभरि निर्जला रहि साँझखन पवित्र से गायक गोबर सौं अंगना नीपी एकटा छोटे खाधि खुनि पोखरीक निर्माण कय ओकरा महार पर एकटा पाकडिक ठारि गाडि गोबर-माटिक चिल्ह आ गिदरनीक आकृति बना डारि पर चिल्हौर आ निचा में गिदरनीक के राखि कलश में कुशक जीमूतवाहनक मूर्तिक स्थापन कय बाँसक पात रंग विरंगक साग पान सुपारी सिनूर टिकली सम सामयिक फल फूल अक्षत मखानादि सौं डाली सजा नैवेद्य ओंकरी सोंहाँस सबचीजक बारीकी सौं व्यवस्था कय श्रद्धा पूर्वक संतान रक्षित जीमूतवाहनक पूजा करै छथि आ महादेव द्वारा पार्वतीक कहल चिल्ह आ सियार पर आधारित कथा मनोयोग सौं सुनि आरती विसर्जन करै छथि।
प्रात भेने तिथि बदलला के बाद स्नान ध्यान कय जीतवाहन के नैवेद्य दय  पारण करै छथि।
**नोट-जे ओरियान नै हुए मानसिक क ली।
माँक संतानक लेल कठिन तपस्या।
हे माँ! हे जननी! आहाँ के शत् शत् नमन।

जितिया व्रत कथा एहि प्रकारे अछि –
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                               एक दिन कैलाशक अति रमणीय शिखरपर बैसि पार्वती शंकर जी सँ प्रश्न कयलनि जे कोन व्रत वा तपस्या छैक जकरा कयला सँ सौभाग्यवती स्त्रीक सन्तान जीवित रहतैक । तकर उत्तर शंकर जी देलनि- आसीन कृष्ण अष्टमी तिथि कऽ यदि स्त्रीगण लोकनि पुत्रक कामनासँ शालिवाहन राजाक पुत्र जिमूतवाहनक कुशक प्रतिमा बना कलशक जल मे स्थापना क‌ए तकरा खूब सुसज्जित कऽ नजदीक मे एक खाधि खुनि पोखरि निर्माण कऽ ओकर मोहार पर एक गोट पाकड़िक ठाढ़ि रोपि, ठाढ़िक ऊपर मे गोबर माटिक चिल्होड़िक निर्माण कऽ राखथि आ नीचा मे गीदरनीक आकृति बनाय राखि देथि । दुनूक माथ पर सिन्दूर पिठार लगाय फूल माला सँ युक्त भऽ धूप-दीप नैवेद्य लऽ बाँसक पात पर पूजा कयलासँ पुत्रक जतेक जे ग्रह चक्र रहैब अछि ताहि सँ मुक्ति भेटैत छैक आ ओकर बंशक वृद्धि हो‌इत छैक आ संग-संग सब मनोरथ पूरा हो‌इत छैक ।
एहि पृथ्वी पर समुद्रक किनार पर नर्मदाक किनार पर दक्षिण दिशा मे कनकावती नामक एकटा गाम अछि, जाहिठाम सब तरहक सेना सँ सुसज्जित मलयकेतु नामक राजा राज्य करैत छलाह । हुनके राज्य मे बहुलूटा नामक मरूभूमि छैक जकरा बिचे बाटे नर्मदा नदी बहैत छथि । ओकरे किनार पर एक गोट अति विशाल पाकड़ि गाछ छल । ओहि पाकड़िक धोधरि मे एकटा गिदरनी निवास करैत छलीह आ ठाढ़ि पर एक गोट चिल्होरनी निवास करैत छलीह । बहुत दिन एक संग निवास करबाक कारणे दुनू मे बड़ गाढ़ दोस्ती छल । ओहि नगरक निवास कयनिहारि महिला लोकनि ओहिगाछ लग आ‌इ आसीन कृष्ण अष्टमी तिथि कऽ जिमूतवाहनक पूजा कऽ कथावाचक सँ कथा सूनि अपन-अपन घर गेलीह । गिदरनी आ चिल्होरनी सेहो व्रत केने छलीह । ओहो लोकनि घर गेलीह ।
ओहि दिन संध्या समय मे ओहिनगर के जे नामी सेठ तकर एकमात्र पुत्रक मृत्यु भऽ गेलैक। ओकर परिजन नर्मदा कातमे आबि संस्कार दऽ घर जा‌इत गेलाह । ओहि अष्टमी रातिमे टपाटप मेघ लागल छल । हाथ-हाथ नै सुझै । ओहि भयंकर अन्हार मे कखनो-कखनो बिजलौका लोकैत छलैक तकर इजोत मे ओहि मृतकक मांस देखि दिनभरिक उपासल गिदरनी तिनका धैर्य नहि राखल गेलनि। ओ गाछपर जे निवास कयनिहरि चिल्होरनी तिनका सँ प्रश्न कयलनि कि हे बहिना जागल छह । अनेक बेर गिदरनी द्वारा जिज्ञासा कयला पर चिल्हो कोनो जवाब नहि देल । तहन गिदरनी सोचलनि बहिना शायद सुति रहली । कैक बेर गिदरनी द्वारा जिज्ञासा क‌एलो पर जवाब नहीं भेटला पर ओ अपन धोधरि सँ निकलि नदी किनार पर जा ओहिठाम सँ अपन मुँहमे पानि आनि-आनि चिताके जे अग्नि तकरा मिझा‌ओल ।
तखन चितामे अवशेष मांसक टुकड़ी तकरा खण्ड-खण्ड कऽ पेट भरि खेबो कयलनि आ अपन धोधरि मे आनि कय रखबो कयलनि । गाछ पर बैसल चिल्हो हिनकर समस्त करतूत देखैत छलीह । प्रातः काल गिदरनी चिल्हो सँ कहलनि सखी पारणाक चर्चा कियैक नहि करैत छी । रातुक बातके जानय वला चिल्होड़ि उदास हो‌इत उत्तर देलनि हे सखी ! पारणा करू गऽ पारणा के बेर भऽ गेल । हम स्त्रीगण लोकनि द्वारा देल गेल अक्षत अंकुरीक नैवेद्य लऽ कऽ पारणा करैत छी । अहूँ करु गऽ ।
तहन कालक्रममे प्रयागमे कुंभ लगलै । संयोगसँ चिल्हो आ गिदरनी दुनू गोटे ओतय गेलीह । ओहिठाम एक संग दुनूक मृत्यु भऽ गेल । कुंभक मृत्युक कारण दुनू गोटेक जन्म वेदक ज्ञाता जे भास्कर नामक ब्राह्मण तिनका घरमे भेलनि । दुनू गोटे जौँआं जन्म लेल । दुनू के नामकरण भेल । चिल्हो जे छलीह से जेठ भेलीह हुनकर नाम शीलावती राखल गेल । आ गिदरनी छोट भेलीह । हुनकर नाम कर्पूरावती राखल गेल । दुनू गोटे जखन नमहर भेलीह कन्यादान योग्य तहन दुनू के कन्यादान भेल । पैघ जे शीलावती तिनक विवाह महामत्त नामक जे धनी-मानी लोक तकरा संग ओ छोटक विवाह मलयकेतु नामक महाराज तिनका संग ।
कालक्रमे कर्पूरावती गर्भवती भेलीह । बच्चा जन्म लेलकनि लेकिन नहि बचलनि मरि गेलनि । एहि तरहें कर्पूरावती के सात गोट पुत्र जन्म लेलकनि आ सातो मरि गेलनि । ओ लोकनि परम दुःखी रहैत छलीह ।
जेठ जे कन्या शीलावती हुनको सात टा पुत्र जन्म लेलकनि आ सातो जीवित छलनि । शीलावती के सेहो कर्पूरावतीक सातो पुत्रक मृत्यु के देखि बड़ संताप हो‌इत छलनि ।
एहि दुःख सँ कर्पूरावती जिमूतवाहन व्रतक दिन खाट पर सुतल छलीह । राजा जहन गृहवासमे उपस्थित भेलाह तँ जिज्ञासा कयलनि – रानी कत‌ए? तहन रानी के लगमे रहय वाली खबासीन से रानी के जाकऽ कहलक जे महाराज अहाँके तकैत छथि । रानी खबासीन द्वारा सम्वाद देलनि जे कहुन गऽ जे शयनागार मे छथि । तहन राजा आबि जिज्ञासा कयलनि “प्रिये ! एना कि‌ऐक सुतल छी” तहन ओ जवाब देलनि “सुखे सुतल छी” । राजा कहलनि “प्रिये उठू !” ताहि पर कर्पूरावती कहलखिन “अहाँ यदि हमरा संग सत्त करब तँ उठब नहि तँ नहि उठब” राजा कहलनि “अवश्य करब” । तहन रानी राजा सँ तीन बेर सत्त कराबौलनि ।
सत्त कयलापर कर्पूरावती ओछा‌ओन सँ उठलीह आ कहलनि जे हमर जे बहिन शीलावती तकर सातो पुत्रक गरदनि कटा हमरा मँगा दिय । तखन राजा पृथ्वीके ठोकैत कान धरैत कहैत छथि “पापिन एहन बात अहाँ कियक बजलहुँ” एहि तरहें बेर-बेर कहलो पर हुनकर कोनो प्रत्युत्तर नहि सुनि हुनकर आज्ञा के स्वीकारि लेल । तहन राजा कहलनि काल्हि अहाँ के सातोटा सिर अनाकऽ द’ देब । कर्पूरावती हुनकर वचन के सत्य मानि जिमूतवाहनक पूजा क‌एल ।
तहन राजा अपन सत्यक रक्षा हेतु चण्डाल के बजाय आदेश देल “महामत्तक जे सातोटा पुत्र तकर गरदनि काटि कर्पूरावती के आनि दहुन ।” ओ प्रातः काल सातोटा मूरी आनि क‌ए द‌ए देलक । ओकरा देखि कर्पूरावती अति प्रसन्न भेलीह ।
कर्पूरावती ओ सातो मूड़ी के सात गो डाली मे पीयर कपड़ा मे बान्हि सातो पुतहुक पारणा लेल शीलावतीक ओतय पठा देलनि ।
शीलावती द्वारा निष्ठापूर्वक जिमूतवाहनक पूजाक ओ सातो डाली मुँहक जे मुण्ड से ताड़क फल भऽ गेल आ सातो बालक जीवित भऽ गेलाह । ओ सातो अपन घोड़ा पर चढ़ि अपन घर अ‌एलाह । सातो भाय स्नान-ध्यान कऽ अपन -अपन पत्नी लग पहुँचलाह तँ सातो पुतहु अपन-अपन स्वामी के मौसी द्वारा पठा‌ओल ताड़क फल देखय देलक आ कहलक जे अहाँक मौसी पारणा लेल पठौलनि अछि ।
ओम्हर कर्पूरावती शीलावतीक सातो पुत्रक वधक शोकाकुल कानब सुनक जे आनन्द तकर प्रतिक्षा मे बैसल छलीह । जहन कानब नहि सुनलनि तखन जिज्ञासा लेल पुनः दासी के पठा‌ओल । दासी ओहिठाम सँ आबि सब समाचार सुनेलक । समाचार बुझि अति दुःखी भेलीह । तखन राजासँ जिज्ञासा कयलनि “हे महाराज ! काल्हि जे अहाँ शीलावतीक सातो बालकक सिर आनि कऽ देने रहि से ककरो दोसरक छलैक ?”
राजा उत्तर देल-“प्रिय ! अहाँक सोझामे ओ सातो मुण्ड राखल छल तहन एहन प्रश्न कि‌एक करैत छी “
रानी ताहि पर कहलनि “हमहूँ ओकरा सब के देखलियै तँ आश्चर्य भेल । ओ सब कोना जीवित भेल ?”
ताहिपर राजा कहलनि “हे प्रिये ! अहाँक बहिन पूर्व जन्म मे सत-व्रतक पालन कयने छथि जकर प्रभावसँ हुनकर सातो पुत्र जीवित भय गेलनि आ अहाँ ओहन व्रतक पालन नहि क‌एने छलहुँ जाहिसँ अहाँक पुत्र सब मरि-मरि गेल आ अहाँ दुःखी हो‌ईत गेलहुँ ।
राजाक मुँहसँ ई बात सुनि कर्पूरावती गुम भऽ ठाढ़ि रहलीह । अगिला बर्ष जिमूतवाहन जाहि दिन छलैक ओहिदिन अपना दासी के पठेलखिन महामत्तक जे स्त्री शीलावती तिनका ओहिठाम । ओ जाकऽ हुनका कहलनि जे रानी कहलनि अछि जे इ जे आ‌इ दुनू गोटे एके संग पूजा करब आ कथा सूनब ।
तकर उत्तर शीलावती देलनि जे कर्पूरावती महारानी छथि हुनका सँ ई पूजा करब आ कथा सूनब संभव नहि छनि ।
दासी ओहिठाम आबि रानी के कहलनि । ताहि पर कर्पूरावती कहलखीन हुनका सातटा बालक छनि तकर गुमान छनि । प्रातः काल संग-संग पारणा करक लेल दासीकेँ पठेलनि । दासी पुनः आबि कहलकनि “ओ कहलनि जे हम दुनू गोटे एक संग पारणा नहि क‌ए सकैत छी ।
ई सुनि जेना रानी के देहमे आगि लागि गेलनि । ओ खरखरिया मंगा पारणा के जावन्तो समान लय शीलावतीक ओहिठाम पहुँचलीह । ओहिठाम पहुँचलापर ओ पानि ल‌ए पैर धो‌आ आसन पर बैसा तखन पुछलखिन “अहाँ एहिठाम कोना पहुँचलहुँ ?” तकर उत्तर कर्पूरावती देलनि हम अहाँ संग मिलि कऽ पारणा करब ।
तकर जवाब शीलावती देलनि “हम अहाँ संग एकठाम पारण नहि करब । अहाँ राजाक जे राजभोग से करू आ आबो दुष्टताक त्याग करू”
कर्पूरावती तैयो थेथर जकाँ कहलथिन-“आ‌इ हम अहाँ संग मिलिये कऽ पारण करब ।”
शीलावती ई सुनि जे आब ई मानयवाली नहीं अछि, पारणाक ओरि‌आ‌ओन मे लागि गेलीह आ कहलनि जे आब अहाँ हमरा संग मिलि अवश्य पारण करू ।
तखन शीलावती कर्पूरावती के कहलनि जे पहिने अहाँ हमरा संग नर्मदा तट पर चलू । दुनू गोटे ओहिठामसँ जा नर्मदा मे स्नान कयलनि । स्नानोपरांत शीलावती कर्पूरावतीसँ प्रश्न कयलनि “कि अहाँ के पूर्वजन्मक बात किछु स्मरण अछि ।” कर्पूरावती नहि कहलनि तहन शीलावती कहय लगलखिन- “यैह नर्मदा नदी अछि । यैह बाहुलुटा मरुभूमि अछि । आ यैह विशाल पाकड़िक गाछ अछि । पूर्व जन्म मे हम चिल्होरि छलहुँ अहाँ गिदरनी । एहि पाकरिक धोधरीमे अहाँ निवास करैत छलहुँ आ डारिपर हम । एहिठामक नगर निवासिनी महिला लोकनि जिमूतवाहनक व्रत क‌एने छलीह । एतय आबि ओ लोकनि पूजा कयलनि आ कथा सुनलनि । हम अहाँ दुनू गोटे व्रत क‌एने रहि । हमहुँ दुनू गोटे हुनके सभ लग मे कथा सुनलहुँ । कथा सुनि अपन-अपन निवास स्थान मे चलि गेलहुँ । ओहि दिन एहि नगर के जे सेठ तकर एकमात्र पुत्रक देहावसान भय गेलैक । ओ बन्धु बान्धव संग आबि चिता रचि संस्कार दय चल जा‌ईत गेल । मध्य रात्रिमे अहाँ हमरा जिज्ञासा क‌एलहुँ । प्रिय चिल्हो ! जागल छी कि सुतल ? अहाँ थोर-थोर कालपर कैक बेर जिज्ञासा कयल हम जवाब दैत गेलहुँ । परन्तु अहाँ हमर बात नहि सुनलहुँ । तखन अहाँ जिज्ञासा के देखि देखि हम चुप्पी लगा देलहुँ । तहन अहाँ हमरा सुतल बुझि अपन धोधरि सँ निकलि मुँह सँ नदी सँ पानि आनि चिताके आगि मिझा पहिने भरि पेट माँस खयलहुँ आ तखन किछु आनि प्रातः कालक पारणा लेल सेहो राखि लेल ।
प्रातः भेने जहन अहाँ हमरा पारणा लेल कहलहुँ तँ रातुक जे वृतांत हम अहाँ के देखने रहीं तँ उदास मन हम कहलहुँ – अहाँ करु हम कयलहुँ । तखन हम ग्रामीण महिला लोकनि द्वारा देल गेल अक्षत आ अंकुरी ल‌ए पारणा कयलहुँ आ अहाँ जे रातुक नर माँस रखने रही से ल‌ए पारणा कयलहुँ ।
ई सब बात हमरा बुझल अछि आबिकऽ देखि लिय । ई कहि कर्पूरावतीक हाथ ध‌ए शीलावती ओहि पाकरीक धोधरि मे लय जा नर माँस आ हड्डी आ शेष मांस देखेलनि ।
तखन कर्पूरावती के शीलावती कहलखिन “व्रत भंगक दोष सँ अहाँक पुत्र सब मरैत गेल आ अहाँ दुःखी हो‌ईत गेलहुँ । हम नियमपूर्वक व्रतक पालन कयलहुँ तकर फलस्वरूप हमर सब पुत्र जीवित अछि आ हम प्रसन्न छी । तें हमरा अहाँमे विरोधाभासो अछि ।
कर्पूरावती पूर्वजन्मक वृतांत शीलावती सँ सुनि ओहिठाम अपन शरीरक त्याग क‌ए देल । शीलावती ओहिठाम सँ धूमि घर एलीह । राजा अपन पत्नीक श्राद्ध कर्म क‌ए निश्चिंत भऽ राज चलावय लगलाह । ओ‌एह जिमूतवाहनक पूजा आ‌ई तक मृत्यु भवनमे लोक अपन सन्तानक दिर्घायुक कामनासँ करैत आबि रहल छथि । एहि व्रत के नियमानुसार करय वाली सब तरहें भरल-पूरल रहैत छथि । ई कथा सुनि कर्पूरक दीप जरा आरती कऽ पूजित देवताक विसर्जन करा दियनि । ईति ।।

                      

सोमवार, 5 सितंबर 2016

गणेश जय जय गणेश (आरती )

गणेश जय जय गणेश  (आरती )
जय गणेश, जय गणेश,
जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा॥

एक दन्त दयावंत,
चार भुजा धारी।
माथे पर तिलक सोहे,
मुसे की सवारी॥

पान चढ़े फुल चढ़े,
और चढ़े मेवा।
लडुवन का भोग लगे,
संत करे सेवा॥

जय गणेश, जय गणेश,
जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा॥

अंधन को आँख देत,
कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत,
निर्धन को माया॥

सुर श्याम शरण आये,
सफल किजे सेवा।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा॥

जय गणेश, जय गणेश,
जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा॥

जय गणेश, जय गणेश,
जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा॥

व्रकतुंड महाकाय,
सूर्यकोटी समप्रभाः।
निर्वघ्नं कुरु मे देव,
सर्वकार्येषु सर्वदा॥

श्री गणेश चालीसा

श्री गणेश चालीसा –

दोहा:
जय गणपति सदगुणसदन,
कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण,
जय जय गिरिजालाल॥

जय जय जय गणपति गणराजू।
मंगल भरण करण शुभ काजू॥

जय गजबदन सदन सुखदाता।
विश्व-विनायक बुद्घि विधाता॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन।
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥

राजत मणि मुक्तन उर माला।
स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं।
मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥

सुन्दर पीताम्बर तन साजित।
चरण पादुका मुनि मन राजित॥

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता।
गौरी ललन विश्व-विख्याता॥

ऋद्घि-सिद्घि तव चंवर सुधारे।
मूषक वाहन सोहत द्वारे॥

कहौ जन्म शुभ-कथा तुम्हारी।
अति शुचि पावन मंगलकारी॥

एक समय गिरिराज कुमारी।
पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी॥

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा।
तब पहूँच्यो तुम धरि द्विज रुपा॥

अतिथि जानि कै गौरि सुखारी।
बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥

अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा।
मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥

मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला।
बिना गर्भ धारण, यहि काला॥

गणनायक, गुण ज्ञान निधाना।
पूजित प्रथम, रुप भगवाना॥

अस कहि अन्तर्धान रुप है।
पलना पर बालक स्वरुप है॥

बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना।
लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥

सकल मगन, सुखमंगल गावहिं।
नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं॥

शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं।
सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं॥

लखि अति आनन्द मंगल साजा।
देखन भी आये शनि राजा॥

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं।
बालक, देखन चाहत नाहीं॥

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो।
उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो॥

कहन लगे शनि, मन सकुचाई।
का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई॥

नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ।
शनि सों बालक देखन कहाऊ॥

पडतहिं, शनि दृगकोण प्रकाशा।
बालक सिर उड़ि गयो अकाशा॥

गिरिजा गिरीं विकल है धरणी।
सो दुख दशा गयो नहीं वरणी॥

हाहाकार मच्यो कैलाशा।
शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा॥

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो।
काटि चक्र सो गजशिर लाये॥

बालक के धड़ ऊपर धारयो।
प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो॥

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे।
प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वर दीन्हे॥

बुद्घि परीक्षा जब शिव कीन्हा।
पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा॥

चले षडानन, भरमि भुलाई।
रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई॥

धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे।
नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥

चरण मातु-पितु के धर लीन्हें।
तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥

तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई।
शेष सहसमुख सके न गाई॥

मैं मतिहीन मलीन दुखारी।
करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी॥

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा।
जग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा॥

अब प्रभु दया दीन पर कीजै।
अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै॥

श्री गणेश यह चालीसा।
पाठ करै धर ध्यान॥

नित नव मंगल गृह बसै।
लहै जगत सन्मान॥

दोहा:
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश,
ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो,
मंगल मूर्ति गणेश॥

शनिवार, 3 सितंबर 2016

गणेशद्वादशनामस्तोत्रम्

।। श्री गणेशाय नमः।

॥गणेशद्वादशनामस्तोत्रम्।।

शुक्लांम्बरधरम् देवम् शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनम् ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशांतये ।।१।।

अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजेतो य: सुरासुरैः।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः।।२।।

गणानामधिपश्चण्डो गजवक्त्रस्त्रिलोचनः।
प्रसन्न भव मे नित्यम् वरदातर्विनायक ।।३।।

सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णक:
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः।।४।।

धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि गणेशस्य य: पठेत् ।। ५ ।।

विद्यार्थी लभते विद्याम् धनार्थी विपुलम् धनम् ।
इष्टकामम् तु कामार्थी धर्मार्थी मोक्षमक्षयम् ।। ६ ।।

विद्यारभ्मे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा
संग्रामे संकटेश्चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।। ७ ।।

॥इति श्री गणेशद्वादशनाम स्तोत्रम् सम्पुर्ण॥

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

संकष्टहरणं गणेशाष्टकम्‌


॥ संकष्टहरणं गणेशाष्टकम्‌ ॥

ॐ अस्य श्री संकष्टहरणस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीमहागणपतिर्देवता, संकष्टहरणार्थ जपे विनियोगः।

ॐ ॐ ॐ काररूपम्‌ त्र्यहमिति च परम्‌ यत्स्वरूपम्‌ तुरीयम्‌
त्रैगुण्यातीतनीलं कलयति मनसस्तेज-सिन्दूर-मूर्तिम्‌।
योगीन्द्रैर्ब्रह्मरन्ध्रैः सकल-गुणमयं श्रीहरेन्द्रेणसंगं
गं गं गं गं गणेशं गजमुखमभितो व्यापकं चिन्तयन्ति ॥१॥

वं वं वं विघ्नराजं भजति निजभुजे दक्षिणे न्यस्तशुण्डं
क्रं क्रं क्रं क्रोधमुद्रा-दलित-रिपुबलं कल्पवृक्षस्य मूले।
दं दं दं दन्तमेकं दधति मुनिमुखं कामधेन्वा निषेव्यम्‌
धं धं धं धारयन्तं धनदमतिघियं सिद्धि-बुद्धि-द्वितीयम्‌ ॥२॥

तुं तुं तुं तुंगरूपं गगनपथि गतं व्याप्नुवन्तं दिगन्तान्‌
क्लीं क्लीं क्लींकारनाथं गलितमदमिलल्लोल-मत्तालिमालम्‌।
ह्रीं ह्रीं ह्रींकारपिंगं सकलमुनिवर-ध्येयमुण्डं च शुण्डं
श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रयन्तं निखिल-निधिकुलं नौमि हेरम्बबिम्बम्‌ ॥३॥

लौं लौं लौंकारमाद्यं प्रणवमिव पदं मन्त्रमुक्तावलीनाम्‌
शुद्धं विघ्नेशबीजं शशिकरसदृशं योगिनां ध्यानगम्यम्‌।
डं डं डं डामरूपं दलितभवभयं सूर्यकोटिप्रकाशम्‌
यं यं यं यज्ञनाथं जपति मुनिवरो बाह्यमभ्यन्तरं च ॥४॥

हुं हुं हुं हेमवर्णं श्रुति-गणितगुणं शूर्पकणं कृपालुं
ध्येयं सूर्यस्य बिम्बं ह्युरसि च विलसत्‌ सर्पयज्ञोपवीतम्‌।
स्वाहाहुंफट् नमोन्तैष्ठ-ठठठ-सहितैः पल्लवैः सेव्यमानम्‌
मन्त्राणां सप्तकोटि-प्रगुणित-महिमाधारमोशं प्रपद्ये ॥५॥

पूर्वं पीठं त्रिकोणं तदुपरि रुचिरं षट्कपत्रं पवित्रम्‌
यस्योर्ध्वं शुद्धरेखा वसुदलकमलं वो स्वतेजश्चतुस्रम्‌।
मध्ये हुंकारबीजं तदनु भगवतः स्वांगषट्कं षडस्रे
अष्टौ शक्तीश्च सिद्धीर्बहुलगणपतिर्विष्टरश्चाष्टकं च ॥६॥

धर्माद्यष्टौ प्रसिद्धा दशदिशि विदिता वा ध्वजाल्यः कपालं
तस्य क्षेत्रादिनाथं मुनिकुलमखिलं मन्त्रमुद्रामहेशम्‌।
एवं यो भक्तियुक्तो जपति गणपतिं पुष्प-धूपा-
क्षताद्यैर्नैवेद्यैर्मोदकानां स्तुतियुत-विलसद्-गीतवादित्र-नादैः ॥७॥

राजानस्तस्य भृत्या इव युवतिकुलं दासवत्‌सर्वदास्ते
लक्ष्मीः सर्वांगयुक्ता श्रयति च सदनं किंकराः सर्वलोकाः।
पुत्राः पुत्र्यः पवित्रा रणभूवि विजयी द्यूतवादेपि वीरो
यस्येशो विघ्नराजो निवसति हृदये भक्तिभाग्यस्य रुद्रः ॥८॥

॥ इति श्री संकष्टहरणं गणेशाष्टकं सम्पूर्णम्‌ ॥

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

संकटनाशन गणेश स्तोत्रम्

संकटनाशन गणेश स्तोत्रम्
Sankat Nashak Ganesh Strotram

संकटनाशन गणेश स्तोत्रम् का प्रति दिन पाठ करने से समस्त प्रकार के संकटोका नाश होता है, श्री गणेशजी कि कृपा एवं सुख समृद्धि कि प्राप्त होती है।


वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ ।
निर्विघ्नम् कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

विघ्नेश्वराय वरदाय सूरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञ विभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमोनमस्ते ॥

॥संकटनाशन गणेशस्तोत्रम्॥

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुंत्र विनायकम्
भक्तावासं स्मरे नित्यं आयुकामार्थसिद्धये ॥ १ ॥

प्रथमं वक्रतुंडं च एकदंतं द्वितियकम्
तृतीयं कृष्णपिंगाक्षं गजवकत्रं चतुर्थकम् ॥ २ ॥

लंबोदरं पंचमं च षष्टमं विकटमेव च
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाअष्टकम् ॥ ३ ॥

नवं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम्
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥ ४ ॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर:
न च विघ्नभयं तस्य सर्व सिद्धि करं प्रभो ॥ ५ ॥

विद्यार्थि लभते विद्यां धनार्थि लभते धनम्
पुत्रार्थि लभते पुत्रांमोक्षार्थि लभते गतिम् ॥ ६ ॥

जपेत्गणपतिस्तोत्रं षडभिमासै: फलं लभेत
संवतसरेणसिद्धिं च लभते नात्रसंशयः ॥ ७ ॥

अष्टभ्योब्राह्मणोभ्यस्य लिखित्वा य: समर्पयेत्
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥ ८ ॥

॥ इतिश्री नारदपुराणे ‘संकटनाशन गणेशस्तोत्रम्’ संपूर्णम् ॥

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

आरती कुंज बिहारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

गले में बैजंती माला,
बजावे मुरली मधुर लाला
श्रवण में कुंडल झलकाला
नंद के आनंद नंदलाला

गगन सम अंग कांति काली
राधिका चमक रही आली
लतन में ठाढ़े बनमाली

भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक

ललित छवि श्यामा प्यारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

कनकमय मोर मुकुट बिलसे
देवता दर्शन को तरसे
गगन सों सुमन रसी बरसे

बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग

अतुल रति गोप कुमारी की
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

जहां ते प्रकट भई गंगा
कलुष कलि हारनि श्री गंगा
स्मरन ते होत मोह भंगा

बसी शिव शीष, जटा के बीच,
हरै अघ कीच

चरन छवि श्री बनवारी की
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

चमकती उज्ज्वल तट रेनू
बज रही वृंदावन बेनू
चहुं दिशी गोपि ग्वाल धेनू

हंसत मृदु मंद, चांदनी चंद,
कटत भव फंद

टेर सुन दीन भिखारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की

आरती कुंज बिहारी की
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की