सोमवार, 26 सितंबर 2016

जानिये नवरात्रि में क्‍यूं की जाती है कन्याओं की पूजा

नवरात्रि नौ रातों की धूमधाम होती है जो दुर्गा माता के नौ रूपों को समर्पित होती है। इन नौ रातों में, शक्ति के नौ रूपों की पूजा होती है। संस्कृत में नवरात्री का शाब्दिक अर्थ होता है नौ रातें।

जानिये नवरात्रि में क्‍यूं की जाती है कन्याओं की पूजा

नवरात्रि का हर एक दिन माँ दुर्गा के एक रूप को समर्पित होता है और इस दिन श्रद्धालुओं द्वारा इनकी पूजा होती है।गुजरात में नवरात्रि में नौ रातों का जश्न, मस्ती और नाच गान होता है। गुजरात में श्रद्धालु रात भर नाच गान करते हैं और पूरी रात डांडिया या गरबा खेला जाता है।

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देश के दूसरे कोनों में श्रद्धालु इन नौ दिन उपवास रखते हैं और माँ दुर्गा के अनेक रूपों को अलग अलग खाने की सामग्री चढ़ाई जाती है। इन नौ दिनों का एक श्रद्धालु के लिए विशेष महत्व होता है जिसका वर्णन नीचे किया गया है।

पहला दिन: प्रथम या नवरात्रि का पहला दिन माँ दुर्गा के पहले अवतार को समर्पित होता है। इस दिन शैलपुत्री माता को श्रद्धालु पूजते हैं। इस अवतार में वह एक बच्ची और पहाड़ की बेटी की तरह पूजी जाती हैं। इस दिन श्रद्धालु पीला वस्त्र पहनते हैं और माता को घी चढ़ाते हैं।

दूसरा दिन: दूसरे दिन माँ दुर्गा की पूजा ब्रह्मचारिणी देवी के रूप में होती है। द्वितीया या दूसरे दिन श्रद्धालु हरा वस्त्र पहनते हैं और माँ को चीनी का भोग लगाते हैं।

तीसरा दिन: तृतीया या तीसरा दिन देवी चंद्रघंटा को समर्पित होता है। ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप की पूजा करने से आपके सारे कष्ट मिट जाते हैं और आपकी मनोकामना पूरी होती है। इस दिन श्रद्धालु भूरे रंग का वस्त्र पहनते हैं और देवी को दूध या खीर का भोग चढ़ता है।

चौथा दिन: चौथा दिन या चतुर्थी देवी कुष्मांडा को समर्पित होता है। ऐसा मानते हैं कि देवी के इस रूप की पूजा करने से और व्रत रखने से श्रद्धालु के सभी कष्ट और रोग दूर होते हैं। इस दिन श्रद्धालु नारंगी वस्त्र पहनते हैं और माँ कुष्मांडा को मालपुआ का भोग लगाते हैं।

पांचवा दिन: पंचमी या पांचवा दिन स्कन्दमाता देवी को समर्पित होता है। ऐसा मानते हैं कि देवी के इस रूप की पूजा करने से श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूरी होती है। पंचमी के दिन उजला वस्त्र पहनते हैं और देवी को केले का भोग चढ़ता है।

छठा दिन: षष्ठी या छठे दिन देवी कात्यायिनी की पूजा होती है। इस दिन श्रद्धालु लाल कपडे पहनते हैं और देवी को खुश करने के लिए शहद का भोग चढ़ाते हैं।

सातवां दिन: सप्तमी या सांतवा दिन देवी कालरात्रि को समर्पित होता है। इस अवतार में देवी अपने श्रद्धालुओं को किसी भी बुराई से बचाती हैं और खुशियां देती हैं। इस दिन श्रद्धालु नीला वस्त्र पहनते हैं और देवी को गुड़ का भोग चढ़ाते हैं। कुछ लोग इस दिन ब्राह्मणों को दक्षिणा भी देते हैं।

आंठवा दिन: आंठवा दिन या अष्टमी देवी महागौरी को समर्पित होता है। ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप की पूजा करने से श्रद्धालुओं के सारे पाप धुल जाते हैं। देवी को हरी साड़ी पहने दिखाते हैं। इस दिन श्रद्धालु गुलाबी रंग पहनते हैं और देवी को नारियल चढ़ाते हैं।
नवां दिन: नवां दिन या नवमी देवी सिद्धिदात्री को समर्पित होता है। देवी के इस रूप की पूजा करने से श्रद्धालुओं की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस दिन श्रद्धालु बैंगनी रंग पहनते हैं और देवी को तिल का भोग चढ़ा

यज्ञ एवं शोध

यज्ञ अथवा अग्निहोत्र आज केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रह गया है। यह शोध का विषय भी बन गया है। ‘अमेरिका’ में यज्ञ पर शोध हुए हैं और प्रायोगिक परीक्षणों से पाया गया है कि वृष्टि, जल एवं वायु की शुद्धि, पर्यावरण संतुलन एवं रोग निवारण में यज्ञ की अहम भूमिका है।

चेचक के टीके के आविष्कारक डॉ. हैफकिन का कथन है ‘घी जलाने से रोग के कीटाणु मर जाते हैं।’ फ्रांस के वैज्ञानिक प्रो. ट्रिलबिर्ट कहते हैं, “जली हुई शक्कर में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति हैं। इससे टी. बी., चेचक, हैजा आदि बीमारियां तुरंत नष्ट हो जाती हैं।” अंग्रेजी शासनकाल में मद्रास के सेनिटरी कमिश्नर डॉ. कर्नल किंग आई.एम.एस. ने कहा, “घी और चावल में केसर मिलाकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।”

आज अत्यधिक धुम्रपान, अंधाधुंद पेट्रोलियम पदार्थों के प्रयोग से बढ़ता प्रदूषण तथा विषैली गैसें चिंता का विषय, जिसका प्रतिकार यज्ञ है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश ने भी कहा है, “यज्ञ में बहुत स्वास्थ्यप्रद उपयोगी ओजोन तथा फारमेल्डिहाइड गैसें भी उत्पन्न होती हैं। ओजोन ऑक्सीजन से भी ज्यादा लाभकारी एवं स्वास्थ्यवर्द्धक है। यह ठोस रूप में प्रायः समुद्र के किनारे पाई जाती है, जिसे हम अपने घर में ही यज्ञ से पा सकते हैं।”

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वैज्ञानिक आधार पर शोध करके सामग्री व समिधाओं का चयन किया था। जैसे-बड़, पीपल, आम, बिल्व, पलाश, शमी, गूलर, अशोक, पारिजात, आंवला व मौलश्री वृक्षों के समिधाओं का घी सहित यज्ञ-हवन में विधान किया था, जो आज विज्ञान सम्मत है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य पंचभूतों की शुद्धि है, जो हमारे पर्यावरण का अंग हैं। यज्ञ का वैदिक उद्देश्य भी पर्यावरण शुद्धि एवं संतुलन है। यज्ञ-विज्ञान का नियम है कि जब कोई पदार्थ अग्नि में डाला जाता है तो अग्नि उस पदार्थ के स्थूल रूप को तोड़कर सूक्ष्म बना देती है। इसलिए यजुर्वेद में अग्नि को ‘धूरसि’ कहा जाता है।

महर्षियों ने इसका अर्थ दिया है कि भौतिक अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता उतनी ही बढ़ जाती है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। जैसे अणु से सूक्ष्म परमाणु और परमाणु से सूक्ष्म इलेक्ट्रान होता है। अतः ये क्रमानुसार एक-दूसरे से ज्यादा क्रियाशील एवं गतिशील है। यज्ञ में यह सिद्धांत एक साथ काम करते हैं। यज्ञ में डाल गई समिधा अग्नि द्वारा विघटति होकर सूक्ष्म बनती है, वहीं दूसरी तरफ वही सूक्ष्म पदार्थ अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होकर विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।

एक चम्मच घी एक आदमी खाता है तो उसकी लाभ-हानि सिर्फ खाने वाले आदमी तक ही सीमित है, परंतु यज्ञ कुंड में एक चम्मच घी अनेक व्यक्तियों को लाभ पहुंचाता है। जिस घर में हवन होता है, यज्ञाग्नि के प्रभाव से वहां की वायु गर्म होकर हल्की होकर फैलने लगती है और उस खाली स्थान में यज्ञ से उत्पन्न शुद्ध वायु वहां पहुंच जाती है। इसमें विसरणशीलता का वैज्ञानिक नियम काम करता है। इसलिए हम देखते हैं कि किसी पर या कोई स्थान, जहां यज्ञ हुआ रहता है, वहां कई दिनों तक समिधा की खुश्बू विद्यमान रहती है। प्रदूषण आज की विकट समस्या है। इसका कारण एक तो हमारी भोगवती प्रवृत्ति और दूसरा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी है। आज का बढ़ता तापमान, औद्योगीकरण, वृक्षों की कटाई, पॉलीथीन का उपयोग, जल, वायु, मृदा प्रदूषण चरमावस्था में है, जिसके कारण प्राणियों की रक्षा के लिए संरचित हमारे रक्षा कवच, ओजोन परत में छेद होने लगा है।

उद्योगों, कल-कारखानों से गंदगी निकलकर पृथ्वी को दूषित कर रहे हैं बेतरतीब वाहनों से निकलता धुआं, अर्थात कार्बन मोनो-ऑक्साइड गैस से आंखों में जनल, सिर दर्द, अस्थमा, टी.बी. आदि से लोग परेशान हैं। ऐसा लगता है संपूर्ण जैवमंडल विनष्ट हो रहा है। ‘ओ पूर्णतः दः पूर्णमिदं’ को आधुनिक स्वार्थी, भोगलिप्सा में लिप्त मानव अनसुना करके अपने आपकों ही मारने पर तुला है। ओजोन परत में हुए छेद से सूर्य की प्रचंड गर्मी, विध्वंसकारी पराबैंगनी किरणों के रूप में चर्म रोग, कैंसर, आंखों से अंधा होना आदि का संवाहक बन गई है। ऐसे में इस समस्या के समाधान हेतु प्रयासों के साथ क्या हम एक छोटा-सा प्रयास ‘यज्ञ’ के रूप में नहीं कर सकते?

आइए आज से ही हम सब सामूहिक यज्ञ का संकल्प लें।

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