बुधवार, 11 मई 2016

मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री।

मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री।
ततछन प्रान पलटि गयौ, तन-तन ह्वै गयौ कारौ री॥

देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री।
मोहिं भ्रम भयौ सखी उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री॥

जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहू तैं अति भारौ री।
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यौं गुन ग्यान हमारौ री॥

हौं उन माहँ कि वै मोहिं महियाँ, परत न देह सँभारौ री।
तरु मैं बीज कि बीज माहिं तरु, दुहुँ मैं एक न न्यारौ री॥

जल-थल-नभ-कानन, घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री।
तित ही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री॥

तजी लाज कुलकानि लोक की, पति गुरुजन प्यौसारौ री।
जिनकि सकुच देहरी दुर्लभ, तिन मैं मूँड़ उधारौं री॥

टोना-टामनि जंत्र मंत्र करि, ध्यायौ देव-दुआरौ री।
सासु-ननद घर-घर लिए डोलति, याकौ रोग बिचारौ री॥

कहौं कहा कछु कहत न आवै, औ रस लागत खारौ
री।
इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री॥

श्री सूरदास जी द्वारा रचित इस पद के भावार्थ :-

एक गोपिका कहती है:- मैंने आँगन में खेलते बालक यशोदानन्दन को एक दिन देखा, तत्काल ही मेरे प्राण (मेरा जीवन) बदल गया, मेरा शरीर और मन भी काला (श्याममय) हो गया।

मैंने उसे देखते ही लाकर हृदय में संचित कर दिया (बैठा दिया) और पलकों का ताला लगा दिया।

लेकिन सखी ! मुझे मन में बड़ा संदेह हुआ कि मैंने बैठाया तो श्याम को, किंतु हृदय में चारों ओर प्रकाश हो गया।
जैसे गुंजा (घुँघची) से सुमेरु की तुलना हो, मेरी अपेक्षा श्याम तो उससे भी बहुत भारी (महान) थे।

जैसे जल की बूँद समुद्र में पड़ जाय, वैसे ही मेरे गुण और ज्ञान उस में लीन हो गये।

पता नहीं, मैं उन में हूँ या वे मुझ में हैं? मुझे तो अब अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती।

वृक्ष में बीज है या बीज में वृक्ष इस उलझन से लाभ क्या? सच तो यह है कि दोनों में से कोई पृथक नहीं है, इसी प्रकार मैं श्याम से एक हो गयी।

अब तो यह दशा है कि जल, स्थल तथा आकाश में, वन में या घर के भीतर जहाँ भी दृष्टि जाती है, वहीं-वहीं मेरे नेत्रों के सम्मुख श्रीनन्दनन्दन नृत्य करते दिखते हैं।

लोक की लज्जा, कुलीन होने का संकोच मैंने त्याग दिया।

पति, गुरुजन तथा मायके (पिता के घर के लोग) जिनके संकोच से देहली देखना (द्वार तक आना) मेरे लिये दुर्लभ था, उनके बीच ही नंगे सिर घूमती हूँ, संकोचहीन हो गयी हूँ।

मेरी सासु और नंनद मुझे घर-घर लिये घूमती हैं, सबसे कहती हैं, इसके रोग का विचार करो (इसे क्या हो गया, यह बताओ तो) टोना-टोटका करती हैं, यन्त्र  बाँधती हैं, मन्त्र जपती हैं और देवताओं का ध्यान करके मनौतियाँ करती है।

मैं क्या कहूँ, कुछ कहते बन नहीं पड़ता, संसार के दूसरे सब रस (सुख) मुझे खारे (दुःखद) लगते हैं।'

सूरदास जी कहते हैं:- इन मोहन के रूप रस के स्वाद का जो लोभी है, उसका आनन्द तो वही उसके चखने वाला (उसका रसास्वाद करने वाला) ही जानता है, उस रस का वर्णन सम्भव नहीं है।

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