शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

जनेऊ क्या है ?

जनेऊ क्या है ?
आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं। यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है।यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।
पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
वैदिक धर्म में प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। प्रत्येक आर्य (हिन्दू) जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।
ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।
लडकियों को भी जनेऊ धारण करने का अधिकार है ।
जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।
जनेऊ के नियम :
1.
यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।
2.
यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित यज्ञोपवीत शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
3.
जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है।
4.
यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित करें ।
5.
मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
* चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
* वैज्ञानिकों अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
* कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।
* कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।
* माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कमर तक स्थित है। जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
* जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से दूर रहने लगता है ।।

मौत के चार संदेश

(( मौत के चार संदेश ))
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पुराने समय में एक बहुत ही चतुर व्यक्ति रहता था जो पुरी तरह स्वार्थ और भोग विलासिता में लिप्त था। पर उस व्यक्ति को अपनी मृत्यु से बहुत डर लगता था।
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कभी एक बहुत बड़े महात्मा उसके धर आएँ। उन्होने अपने प्रवचन में कहा कि मृत्यु से पहले चार दिव्य संदेश आते है ताकि हम मरने से पहले अपनी सब ज़िम्मेवारीयों को भलीभाँति निभा पाएँ।
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ये सुनकर उस चतुर व्यक्ति के मन से मौत का भय निकल गया। उसने सोचा जैसे जैसे मृत्यु आने के संदेश आएँगे मैं मरने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण कर लुँगा।
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अपने बाल-बच्चो को कारोबार सौंप दूँगा और स्वयं समाज और देश की सेवा में लगकर अपना परलोक सुधार लुँगा।
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दिन बीतते गये उस व्यक्ति कि मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। डाक्टरों ने जवाब दे दिया और कहा कि अब आपका बच पाना मुश्किल है।
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तब उस व्यक्ति ने महात्मा को बुलाकर धिक्कारते हुए कहा कि तुमने तो मुझे प्रवचन दिया था कि मौत आने से पहले चार दिव्य संदेश आते है ? आज मेरी मौत सामने है पर मुझे कोई संदेश नही आया।
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महात्मा हँसा कर बोला मित्र आपको भी चारों संदेश आए थे परन्तु आपने उनको सभी को न केवल नज़रअंदाज़ कर दिया बल्कि ढक कर छुपा दिया।
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वानप्रस्थ शुरू होते ही आपके काले सुन्दर बालों सफ़ेद हो गए थे। यह आने वाली विपदा का पहला संदेश था। यह आपको चेतावनी थी कि अपने जीवन को सादा करके विलासिताऔ और संभोग से मुक्त हो जाओ।
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पर इस संदेश का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। आपने तो इस संदेश को छुपाने के लिए बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान दिखने की कोशिश करने लगे।
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आज भी वह दिव्य श्वेत संदेश आपके सिर पर काले ख़िजाब के नीचे से दिखाई दे रहे है।
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कुछ दिन बाद आपको दूसरा संदेश आपकी नेत्रों की ज्योति मंद करके भेजा गया।
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उस समय तो आपको अंतर्मुखी हो जाना चाहिए था तथा आपाधापी छोड़ कर अपने अधुरे काम है को पुरा करने में लग जाना चाहिए था।
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पर तुम तो हद करदी और आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा करके अपनी पुरानी स्वार्थ और धन संग्रह की दिनचर्या में ही लगे रहे।
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तीसरा संदेश में ईश्वर में आपके दाँतो को हिलाया और कुछ को तोड़ दिया जिसमें आप हलका नरम और तरल भोजन खाने लगों और तुमने जबरदस्ती नकली दाँत लगवाये और संसार के स्वादिष्ट भोजन और भोग विलास में निरंतर लिप्त रहे।
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इस संदेश के बाद तो आपको देश और समाज सेवा में लग जाना चाहिए था।
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अन्तिम संदेश के रूप में रोग तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने योग और परहेज़ पूर्वक सात्विक जीवन शैली को नही अपनाया और पीड़ा नाशक दवाईयाँ ले कर अपने जंजर शरीर को अपनी लालसा पुर्ति करने के लिए ढोते रहे।
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मेरे बताएँ अनुसार आपको चार संदेश आएँ पर आपने इन दिव्य संदेश को दबाने के लिए एक बनावटी रास्ता तैयार कर लिया।
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जब उस चतुर मनुष्य ने काल के चार संदेशों को समझा तो वह फूट-फूट कर रोने लगा और अपनी नादानी पर पश्चाताप करने लगा।
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उसने स्वीकार किया कि मैंने इन दिव्य चेतावनी भरे इन संदेशों को नहीं समझा।
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वह सदा यही सोचता रहा कि अभी क्या जल्दी है अभी कुछ और वासना भोग लूँ, कुछ और धंमड पुरा कर लूँ, कुछ और प्रतिस्पर्धा कर लूँ, कुछ और प्रोपर्टी ख़रीद लूँ। अभी क्या ज़ल्दी है देश के बारे में समाज के बारे में सोचने कि।
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मरने से कुछ दिन पहले तक भगवान का भजन करूँगा कुछ दान पुण्य करके अपना जीवन धन्य कर लुँगा।
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इस पर महात्मा ने कहा आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-द्वेष, स्वार्थ और भोगों के लिए किया।
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जो भी जान-बूझकर सृष्टि के दिव्य नियमों को जो तोड़ता है, वह अक्षम्य है।
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अब तुम्हारी करोड़ों की सम्पत्ति का कोई लाभ नही है।
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वह चतुर मनुष्य अपने सामने खड़ी मौत को देख कर हाय-हाय करके रोने लगा और सभी सम्बन्धियों को पुकारने लगा पर उसकी मदद के लिए कोई नही आया। अतंत: काल ने उसके प्राण हर लिए।
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यदि हम सहज मृत्यु और मोक्ष चाहते हैं तों इन दिव्य संदेशों के मिलते ही हम "मैं और मेरा" के कुचक्र से निकल कर अपने जीवन में निस्वार्थ जनसेवा, आचरण मे सच्चाई और अपनी दिनचर्या में योग, प्रणायाम, आयुर्वेद को अपनाये।

द्रव्येश्वर धाम: *सुबह के स्नान को धर्म शास्त्र में चार उपनाम दिए ह...

द्रव्येश्वर धाम: *सुबह के स्नान को धर्म शास्त्र में चार उपनाम दिए ह...: *सुबह के स्नान को धर्म शास्त्र में चार उपनाम दिए है ।* 1    मुनि स्नान । जो सुबह 4 से 5 के बिच किया जाता है ।���� 2   देव स्नान । जो सुब...

सोमवार, 7 अगस्त 2017

संकट मोचन हनुमानाष्टक

||  संकट मोचन हनुमानाष्टक ||
बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो।
देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥१॥
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो।
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥२॥
अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो।
हेरि थके तट सिंधु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥३॥
रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो।
चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥४॥
बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो।
आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥५॥
रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो।
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥६॥
बंधु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो।
जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥७॥
काज कियो बड़ देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो।
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कुछ संकट होय हमारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥८॥
||  दोहा ||
लाल देह लाली लसे अरू धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन जय जय जय कपि सूर॥
||  इति संकटमोचन हनुमानाष्टक सम्पूर्ण ||

रविवार, 23 जुलाई 2017

योगसूत्र

योगसूत्र
प्रथमः
समाधिपादः . अथ योगानुशासनम.ह .. १.. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः .. २..
तदा द्रश्ह्टुः स्वरूपे.अवस्थानम.ह .. ३..
वृत्तिसारूप्यम.ह इतरत्र .. ४..
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिश्ह्टा अक्लिश्ह्टाः .. ५.. प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः .. ६.. प्रत्यक्शानुमानागमाः प्रमाणानि .. ७..
विपर्ययो मिथ्याघ्य़ानम.ह अतद्रूपप्रतिश्ह्ठम.ह .. ८.. शब्दघ्य़ानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः .. ९.. अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा .. १०.. अनुभूतविश्हयासंप्रमोश्हः स्मृतिः .. ११.. अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः .. १२..
तत्र स्थितौ यत्नो.अभ्यासः .. १३.. स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः .. १४.. दृश्ह्टानुश्रविकविश्हयवितृश्ह्णस्य वशीकारसंघ्य़ा वैराग्यम.ह .. १५..
तत्परं पुरुश्हख्यातेर्गुणवैतृश्ह्ण्यम.ह .. १६.. वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात.ह संप्रघ्य़ातः .. १७..
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेश्हो.अन्यः .. १८.. भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम.ह .. १९.. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रघ्य़ापूर्वक इतरेश्हाम.ह .. २०.. तीव्रसंवेगानाम.ह आसन्नः .. २१.. मृदुमध्याधिमात्रत्वात.ह ततो.अपि विशेश्हः .. २२.. ईश्वरप्रणिधानाद.ह वा .. २३.. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृश्ह्टः पुरुश्हविशेश्ह ईश्वरः .. २४..
तत्र निरतिशयं सर्वघ्य़्त्वबीजम.ह .. २५..
स पूर्वेश्हाम.ह अपि गुरुः कालेनानवच्च्हेदात.ह .. २६.. तस्य वाचकः प्रणवः .. २७..
तज्जपस्तदर्थभावनम.ह .. २८.. ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमो.अप्यन्तरायाभावश्च .. २९.. व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभू- मिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्शेपास्ते.अन्तरायाः .. ३०.. दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्शेपसहभुवः .. ३१.
. तत्प्रतिश्हेधार्थम.ह एकतत्त्वाभ्यासः .. ३२.. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्शणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविश्हयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम.ह .. ३३.. प्रच्च्हर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य .. ३४..
विश्हयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी .. ३५..
विशोका वा ज्योतिश्ह्मती .. ३६..
वीतरागविश्हयं वा चित्तम.ह .. ३७.. स्वप्ननिद्राघ्य़ानालम्बनं वा .. ३८..
यथाभिमतध्यानाद.ह वा .. ३९.. परमाणु परममहत्त्वान्तो.अस्य वशीकारः .. ४०.. क्शीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येश्हु तत्स्थतदञ्जनतासमापत्तिः .. ४१..
तत्र शब्दार्थघ्य़ानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः .. ४२..
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का .. ४३..
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्श्मविश्हया व्याख्याता .. ४४..
सूक्श्मविश्हयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम.ह .. ४५.
. ता एव सबीजः समाधिः .. ४६.. निर्विचारवैशारद्ये.अध्यात्मप्रसादः .. ४७.
. र्तंभरा तत्र प्रघ्य़ा .. ४८..
श्रुतानुमानप्रघ्य़ाभ्याम.ह अन्यविश्हया विशेश्हार्थत्वात.ह .. ४९..
तज्जः संस्कारो न्यसंस्कारप्रतिबन्धी .. ५०..
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान.ह निर्बीजः समाधिः .. ५१..
इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे प्रथमः समाधिपादः .

द्वितीयः साधनपादः .

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः .. १.. समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च .. २.. अविद्यास्मितारागद्वेश्हाभिनिवेशाः क्लेशाः .. ३.. अविद्या क्शेत्रम.ह उत्तरेश्हां प्रसुप्ततनुविच्च्हिन्नोदाराणाम.ह .. ४.. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या .. ५.. दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता .. ६.. सुखानुशयी रागः .. ७.. दुःखानुशयी द्वेश्हः .. ८.. स्वरसवाही विदुश्हो.अपि तथारूढो भिनिवेशः .. ९.. ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्श्माः .. १०.. ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः .. ११.. क्लेशमूलः कर्माशयो दृश्ह्टादृश्ह्टजन्मवेदनीयः .. १२.. सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः .. १३.. ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात.ह .. १४.. परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच च दुःखम.ह एव सर्वं विवेकिनः .. १५.. हेयं दुःखम.ह अनागतम.ह .. १६.. द्रश्ह्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः .. १७.. प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम.ह .. १८.. विशेश्हाविशेश्हलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि .. १९.. द्रश्ह्टा दृशिमात्रः शुद्धो.अपि प्रत्ययानुपश्यः .. २०.. तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा .. २१.. कृतार्थं प्रति नश्ह्टम.ह अप्यनश्ह्टं तदन्यसाधारणत्वात.ह .. २२.. स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः .. २३.. तस्य हेतुरविद्या .. २४.. तदभावात.ह संयोगाभावो हानं. तद.ह्दृशेः कैवल्यम.ह .. २५.. विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः .. २६.. तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रघ्य़ा .. २७.. योगाङ्गानुश्ह्ठानाद.ह अशुद्धिक्शये घ्य़ानदीप्तिरा विवेकख्यातेः .. २८.. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो.अश्ह्टाव अङ्गानि .. २९.. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः .. ३०.. जातिदेशकालसमयानवच्च्हिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम.ह .. ३१.. शौचसंतोश्हतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः .. ३२.. वितर्कबाधने प्रतिपक्शभावनम.ह .. ३३.. वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाघ्य़ानानन्तफला इति प्रतिपक्शभावनम.ह .. ३४.. अहिंसाप्रतिश्ह्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः .. ३५.. सत्यप्रतिश्ह्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम.ह .. ३६.. अस्तेयप्रतिश्ह्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम.ह .. ३७.. ब्रह्मचर्यप्रतिश्ह्ठायां वीर्यलाभः .. ३८.. अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः .. ३९.. शौचात.ह स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः .. ४०.. सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र.ह्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च .. ४१.. संतोश्हाद.ह अनुत्तमः सुखलाभः .. ४२.. कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्शयात.ह तपसः .. ४३.. स्वाध्यायाद.ह इश्ह्टदेवतासंप्रयोगः .. ४४.. समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात.ह .. ४५.. स्थिरसुखम.ह आसनम.ह .. ४६.. प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम.ह .. ४७.. ततो द्वन्द्वानभिघातः .. ४८.. तस्मिन.ह सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्च्हेदः प्राणायामः .. ४९.. बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसंख्याभिः परिदृश्ह्टो दीर्घसूक्श्मः .. ५०.. बाह्याभ्यन्तरविश्हयाक्शेपी चतुर्थः .. ५१.. ततः क्शीयते प्रकाशावरणम.ह .. ५२.. धारणासु च योग्यता मनसः .. ५३.. स्वस्वविश्हयासंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः .. ५४.. ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम.ह .. ५५.. इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे द्वितीयः साधनपादः .

तृतीयः विभूतिपादः .

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा .. १.. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम.ह .. २.. तद.ह एवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यम.ह इव समाधिः .. ३.. त्रयम.ह एकत्र संयमः .. ४.. तज्जयात.ह प्रघ्य़ा.अ.अलोकः .. ५.. तस्य भूमिश्हु विनियोगः .. ६.. त्रयम.ह अन्तरङ्गं पूर्वेभ्यः .. ७.. तद.ह अपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य .. ८.. व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ निरोधक्शणचित्तान्वयो निरोधपरिणामः .. ९.. तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात.ह .. १०.. सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्शयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः .. ११.. ततः पुनः शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः .. १२.. एतेन भूतेन्द्रियेश्हु धर्मलक्शणावस्थापरिणामा व्याख्याताः .. १३.. शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी .. १४.. क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः .. १५.. परिणामत्रयसंयमाद.ह अतीतानागतघ्य़ानम.ह .. १६.. शब्दार्थप्रत्ययानाम.ह इतरेतराध्यासात.ह संकरः. तत्प्रविभागसंयमात.ह सर्वभूतरुतघ्य़ानम.ह .. १७.. संस्कारसाक्शत्करणात.ह पूर्वजातिघ्य़ानम.ह .. १८.. प्रत्ययस्य परचित्तघ्य़ानम.ह .. १९.. न च तत.ह सालम्बनं, तस्याविश्हयीभूतत्वात.ह .. २०.. कायरूपसंयमात.ह तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्शुःप्रकाशासंप्रयोगे.अन्तर्धानम.ह .. २१.. एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तम.ह सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म. तत्संयमाद.ह अपरान्तघ्य़ानम, अरिश्ह्टेभ्यो वा .. २२.. मैत्र्यादिश्हु बलानि .. २३.. बलेश्हु हस्तिबलादीनि .. २४.. प्रवृत्त्यालोकन्यासात.ह सूक्श्मव्यवहितविप्रकृश्ह्टघ्य़ानम.ह .. २५.. भुवनघ्य़ानं सूर्ये संयमात.ह .. २६.. चन्द्रे ताराव्यूहघ्य़ानम.ह .. २७.. ध्रुवे तद्गतिघ्य़ानम.ह .. २८.. नाभिचक्रे कायव्यूहघ्य़ानम.ह .. २९.. कण्ठकूपे क्शुत्पिपासानिवृत्तिः .. ३०.. कूर्मनाड्यां स्थैर्यम.ह .. ३१.. मूर्धज्योतिश्हि सिद्धदर्शनम.ह .. ३२.. प्रातिभाद.ह वा सर्वम.ह .. ३३.. हृदये चित्तसंवित.ह .. ३४.. सत्त्वपुरुश्हयोरत्यन्तासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेश्हो भोगः परार्थत्वात.ह स्वार्थसंयमात.ह पुरुश्हघ्य़ानम.ह .. ३५.. ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते .. ३६.. ते समाधाव उपसर्गा. व्युत्थाने सिद्धयः .. ३७.. बन्धकारणशैथिल्यात.ह प्रचारसंवेदनाच च चित्तस्य परशरीरावेशः .. ३८.. उदानजयाज्जलपङ्ककण्टकादिश्ह्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च .. ३९.. समानजयात.ह प्रज्वलनम.ह .. ४०.. श्रोत्राकाशयोः संबन्धसंयमाद.ह दिव्यं श्रोत्रम.ह .. ४१.. कायाकाशयोः संबन्धसंयमाल लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम.ह .. ४२.. बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा. ततः प्रकाशावरणक्शयः .. ४३.. स्थूलस्वरूपसूक्श्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद.ह्भूतजयः .. ४४.. ततो.अणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत.ह तद्धर्मानभिघातश्च .. ४५.. रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसंपत.ह .. ४६.. ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमाद.ह इन्द्रियजयः .. ४७.. ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च .. ४८.. सत्त्वपुरुश्हान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिश्ह्ठातृत्वं सर्वघ्य़ातृत्वं च .. ४९.. तद्वैराग्यादपि दोश्हबीजक्शये कैवल्यम.ह .. ५०.. स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनः अनिश्ह्टप्रसङ्गात.ह .. ५१.. क्शणतत्क्रमयोः संयमादविवेकजं घ्य़ानम.ह .. ५२.. जातिलक्शणदेशैरन्यता.अनवच्च्हेदात.ह तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः .. ५३.. तारकं सर्वविश्हयं सर्वथाविश्हयम.ह अक्रमं चेति विवेकजं घ्य़ानम.ह .. ५४.. सत्त्वपुरुश्हयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम.ह इति .. ५५.. इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे तृतीयो विभूतिपादः

चतुर्थः कैवल्यपादः .

जन्मौश्हधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः .. १.. जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात.ह .. २.. निमित्तम.ह अप्रयोजकं प्रकृतीनां. वरणभेदस्तु ततः क्शेत्रिकवत.ह .. ३.. निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात.ह .. ४.. प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तम.ह एकम.ह अनेकेश्हाम.ह .. ५.. तत्र ध्यानजम.ह अनाशयम.ह .. ६.. कर्माशुक्लाकृश्ह्णं योगिनः त्रिविधम.ह इतरेश्हाम.ह .. ७.. ततस्तद्विपाकानुगुणानाम.ह एवाभिव्यक्तिर्वासनानाम.ह .. ८.. जातिदेशकालव्यवहितानाम.ह अप्यानन्तर्यं, स्मृतिसंस्कारयोः एकरूपत्वात.ह .. ९.. तासाम.ह अनादित्वं चाशिश्हो नित्यत्वात.ह .. १०.. हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्वाद.ह एश्हाम.ह अभावे तदभावः .. ११.. अतीतानागतं स्वरूपतो.अस्त्यध्वभेदाद.ह धर्माणाम.ह .. १२.. ते व्यक्तसूक्श्मा गुणात्मानः .. १३.. परिणामैकत्वाद.ह वस्तुतत्त्वम.ह .. १४.. वस्तुसाम्ये चित्तभेदात.ह तयोर्विभक्तः पन्थाः .. १५.. न चैकचित्ततन्त्रं वस्तु तद.ह अप्रमाणकं तदा किं स्यात.ह .. १६.. तदुपरागापेक्शत्वात.ह चित्तस्य वस्तु घ्य़ाताघ्य़ातम.ह .. १७.. सदा घ्य़ाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुश्हस्यापरिणामित्वात.ह .. १८.. न तत.ह स्वाभासंदृश्यत्वात.ह .. १९.. एकसमये चोभयानवधारणम.ह .. २०.. चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्गः स्मृतिसंकरश्च .. २१.. चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम.ह .. २२.. द्रश्ह्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम.ह .. २३.. तदसंख्येयवासनाचित्रम.ह अपि परार्थं संहत्यकारित्वात.ह .. २४.. विशेश्हदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः .. २५.. तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम.ह .. २६.. तच्च्हिद्रेश्हु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः .. २७.. हानम.ह एश्हां क्लेशवदुक्तम.ह .. २८.. प्रसंख्याने.अप्यकुसीदस्य सर्वथाविवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः .. २९.. ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः .. ३०.. तदा सर्वावरणमलापेतस्य घ्य़ानस्या.अनन्त्याज्घ्य़ेयम.ह अल्पम.ह .. ३१.. ततः कृतार्थानां परिणामक्रमपरिसमाप्तिर्गुणानाम.ह .. ३२.. क्शणप्रतियोगी परिणामापरान्तनि{ग्रा}.र्ह्यः क्रमः .. ३३.. पुरुश्हार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं, स्वरूपप्रतिश्ह्ठा वा चितिशक्तिरेति .. ३४.. इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे चतुर्थः कैवल्यपादः . .. इति पातञ्जलयोगसूत्राणि ..

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

अथ पशुपत्यष्टकम.ह

अथ पशुपत्यष्टकम.ह

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                ध्यानम.ह.
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाण्‍गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम.ह .
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम.ह ..
                स्तोत्रम.ह.
पशुपतीन्दुपतिं धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सती पतिम.ह॥
गणत भक्तजनार्ति हरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह ॥ १॥
न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम.ह॥
अवति को.अपि न कालवशं गतं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह ॥ २॥
मुरजडिण्डिवाद्यविलक्शणं मधुरपञ्चमनादविशारदम.ह॥
प्रथमभूत गणैरपि सेवितं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह  ॥ ३॥
शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम.ह॥
अभयदं करुणा वरुणालयं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह  ॥ ४॥
नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृश्हभध्वजम.ह॥
चितिरजोधवली कृत विग्रहं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह ॥ ५॥
मुखविनाशण्‍करं शशिशेखरं सततमघ्वरं भाजि फलप्रदम.ह॥
प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह ॥ ६॥
मदम पास्य चिरं हृदि संस्थितं मरण जन्म जरा भय पीडितम.ह॥
जगदुदीक्श्य समीपभयाकुलं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह ॥ ७॥
हरिविरिञ्चिसुराधिंप  पूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम.ह॥
त्रिनयनं भुवन त्रितयाधिपं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम.ह ॥ ८॥
पशुपतेरिदमश्ह्टकमद्भुतं विरिचित पृथिवी पति सूरिणा॥
पठति संशृनुते मनुजः सदा शिवपुरिं वसते लभते मुदम.ह ॥ ९॥

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम

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एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्य्ञ्जयमेश्वरं ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत सदा ॥
सारात सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं ।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥
समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं ।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः ।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥
दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः ।
सदाशिवो.अग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥
अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः ।
यमरूपि महादेवो दक्शिणस्यां सदावतु ॥
खड्गाभयकरो धीरो रशोगणनिषेवितः ।
रशोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः ।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥
शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः ।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥
शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः ।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥
ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्मा.अधः सदावतु ।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः ॥
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचने.अवतु ।
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः ।
जिह्वां मे दक्शिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशो.अवतु ॥
मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः ।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः ।
नाभिं पातु विरूपाक्शः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥
कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः ।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥
जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका ।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम ।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम ॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम ।
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम ॥
यः पठेच्च्हृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः ।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥
कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा ।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥
युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं ।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि शयं कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्दमध्ये.अपि सर्वदा ॥
प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं ।
अशय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः ।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥
विचरव्यखिलान लोकान प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम समुदाहृतम ॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम ॥
  ॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम ॥

बुधवार, 19 जुलाई 2017

छठम दिन क पूजा

छठम दिन क पूजा

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गंगा क कथा

राजा सगर क दु टा स्त्री वेदर्भी आ शैव्या I शैव्या क पुता असमंजस मुदा वेदर्भी  कुनु संतान नहि छेलनि I ओ संतान हेतु सौ वर्ष तक महादेव क तपस्या केलैथ त हुनका संतान क नाम पर एकटा लोथ क जन्म भेलनि त ओ महादेव क कानि क स्मरण केलैथ I महादेव ब्राह्मण क रूप धरि अयलाह आ ओहि लोथ के साठि हजार खंड क सब के तौला में तेल में ध राखि देलखिन I थोङे दिन बाद ओहि सं साठि हजार सुन्दर बालक भ गेल I

राजा समर ९९ टा अश्वमेघ यज्ञ क बाद सौ वां क तैयारी में लागल छलैथ मुदा इन्द्र नहि चाहैत छलैथ कि इ यज्ञ पूरा होय कियक त सौवा पूरा भेला पर ओ शतक्रतु इन्द्र भ जेता ,तेँ ओ विघ्न पैदा करैत रहैत छलैथ I

अश्वमेध क घोङा छोरल गेल जकर रखवाङ हुन कर साठि हजार पुत्र छलैथ I इन्द्र घोङा छल सं चोरा क भागलैथ , हुनका पाछू पाछू साठियो हजार पुत्र पृथिवी कोङैत आगु बढ़लाह त घोङा क कपिलमुनि क आश्रम में बांधल देखलखिन I सगर पुत्र मुनि क चोर बुछि हुनका दिस ज्यो दौङलखिन त मुनि क ध्यान टूटि गेलनि आ  हुनकर क्रुद्ध दृष्टी सं सब सगर पुत्र भस्म भ गेला I राजा क यज्ञ अपूर्ण रही गेल ,आ ओ शोकाकुल मरि गेला I अपमृत्यु क प्राप्त राजकुमार सब के सदगति क जखन उपाय पुँछल गेल त सब कहलखिन जे से तखने संभव जँ गंगा हुनकर सभक अस्थि क स्पर्श करति I गंगा क धरती पर अनवा लेल असमंजस तपस्या करैत करैत मरि गेला I ओकर बाद हुनकर बेटा दिलीप आ फेर दिलीप क बेटा अंशुमान सेहो तपस्या करैत मरि गेला I तखन हुनकर बेटा भागीरथ क तपस्या सं प्रसन्न भय विष्णु गंगा के बैकुंठ सं धरती पर अनबाक अनुमति देलखिन I चुकि गंगा यकायक धरती पर उतरति त धरती रसातल में चलि जायत ते पहिले शिव अपना माथ पर उतारि जटा में समेटलखिन I तकर बाद गंगा हिमालय क दह्बैत बिदा भेलि I जह्नु ऋषि क आश्रम दहा लगलैन त ओ उठा गंगा क पीवि  गेलखिन  I भगीरथ ऋषि के सेवा कर लगला जाहि सं प्रसन्न भय एही शर्त पर गंगा के छोङलखिन कि गंगा हुनकर बेटी कहोती तेँ गंगा जाह्नवी कहेली I आगु आगु भागीरथ आ पाछु पाछु गंगा ,गंगा द्वार सं होइत हरिद्वार फेर हुनकर पितर क्र भस्म सब के धोइत पखारैत अंत में ओहि विशाल खाधि में खसलीह जकरा सगर पुत्र खुन्ने छलैथ आ ओ सागर कहाएल .एही प्रकारे गंगा धरती पर एली I

श्री गौरी क जन्म

सती क मृत्यु क बाद महादेव संसार सं विरक्त भय निर्जन स्थान में जा तपस्या में लीन भय गेला I एही बीच राक्षस सब हक उपद्रव बहुत बढि गेल I ओहि राक्षस  सब में तारकासुर नामक राक्षस अपना तपस्या सं प्रस्सन कय ब्रह्मा सं वरदान मंगलक कि हम अमर भय जाई ,जाहि पर ब्रह्मा राजी नई भेलखिन त ओ दोसर वरदान मंगलक कि ओकर मृत्यु मात्र महादेव के औरस पुत्र क हाथे हूअए I ब्रह्मा तखन मानि  गेलखिन आ ओकरा तथास्तु  कहि देलखिन I इ वरदान मंगवा में तारकासुर के इ उद्देश्य छल कि महादेव क स्त्री त निस्संतान मरि गेल छैथ आ महादेव संसार सं विरक्त भय गेल छैथ तें हुनकर दोसर विवाह असंभव I अर्थात ओ अमर रही जायत I मृत्यु भयहिन तारकासुर सब देवता सब के स्वर्ग सं भगा अपने राजा बनि गेल I जप तप बंद करवा देलक ,मुनि सब के सतबए लागल,स्त्री सब के अपहरण करय लागल I ओकर त्राहि त्राहि सं तंग आवि  क  सब लोक ब्रह्मा लग गेलैथ त ब्रह्मा कहलखिन जे आँहा  सब महाशक्ति दुर्गा क आराधाना करू त ओ गौरी रूप में जन्म लेति आ जखन हुनकर और महादेव क विवाह सं पुत्र ह्र्तैन त ओहि बालक हाथे तारकासुर क वध हैत I तखन सब गोटा माँ  दुर्गा क आराधना करय लगला जाहि सं प्रस्सन  भय दुर्गा क जन्म हिमालय क बेटी क रूप में भेलनि II

काम-दहन

एक दिन नारद मुनि हिमालय क ओहिठाम अयलाह आ हिमालय क कहलखिन जे अहाँ क पुत्री गौरी क हाथ में  महादेव संग विवाह लिखल छैन , आ अखन  महादेव अहिं क शिखर पर तपस्या क रहल छैथ तेँ अहाँ गौरी के महादेव क सेवा में लगा दिऔन जाहि सं ओ प्रस्सन भय अहाँ क बेटी सं विवाह क लेता I हिमालय नित्य गौरी क दु गोट सखि संगे महादेव क सेवा में पठबए लगलखिन I देवतागण महादेव क तपस्या भंग कय  हुनकर ध्यान गौरी दिस आकृष्ट करवा हेतु कामदेव क कहलखिन I कामदेव अपन मित्र वसंत आ पत्नी रति संगे ओतय पँहूचि   गेलैथ I सम्पूर्ण हिमालय वसंत क महिमा सं सुंगंधित आ आकर्षक भई गेल I परम सुंदरी गौरी जखन महादेव क पूजा क हेतु पुष्प श्रृंगार कय महदेव क आगु ठाढ़ भेलखिन तखने कामदेव महादेव क ऊपर अपन वाण चला देलखिन I महादेव क तन्द्रा टुटि गेलैन आ ओ अपना समक्ष गौरी क देख हुनका पर आसक्त भैय कामातुर भय गेला I परन्तु तत् क्षण महादेव संभालि गेला आ अपन क्षण में उपजल यही भावना क कारण ताक लगला त झाङी में नुकायल कामदेव क देखलखिन Iमहादेव क क्रोध सं हुनकर तेसर नेत्र खुलि  गेल  आ ज्यो ओ कामदेव दिस तकलखिन ,कामदेव भस्म भ गेला I रति अपना स्वामी क दशा देख विलाप करय लागलि त सब देवता सब महादेव क कहलखि जे-एहि में कामदेव क कुनु गलति नहि  छल अपितु संसार क तारकासुर सं बचेवा हेतु अहाँ क तपस्या सं उठेनए जरूरी छल I तखन महादेव कहलखिन जे कामदेव मरला नइ हुनकर शरीर जरलनि I रति अखन  समुद्र क राक्षस शम्बर संगे  जा क रहति आ जखन द्वापर में कृष्ण क बेटा प्रदुम्म क उठा क शम्बर राक्षस अपना नगर ल जायत त रति क ओतहि प्रदुम्म क शरीर में कामदेव भेटतनि  I आ जखन प्रदुम्म पैघ भ जेता त शम्बर क मारि रति क द्वारिका ल जा  हुनका सं विवाह करता I तखन रति कामदेव सं मिलन क आशा में शम्बर राक्षस क ओहिठाम लेल विदा भेलि II

बाचो बीनी

“पुरैनिक पत्ता ,झिलमिल लत्ता ताहि चढ़ी बैसली बिसहरी माता I

हाथ सुपारी खोईंछा पान ,बिसहरी माता  करती शुभ कल्याण “